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________________ परिस्थितिवाद और हृदय परिवर्तन ११३ की सारी शाखाएं समाप्त हो जाएं। ये सारे विद्यालय और महाविद्यालय चलते हैं ज्ञान को सिखाने के लिए, किन्तु संवेदन को सिखाने के लिए कोई भी उपाय और उपक्रम नहीं चल रहा है । हमारे जीवन में दो चेतना के प्रकार काम कर रहे हैं- एक है संवेदन की चेतना और दूसरी है ज्ञान की चेतना, सीखने की चेतना, स्मृति की चेतना, कल्पना की चेतना, ग्रहण करने की चेतना । ये दो बिलकुल अलग-अलग काम कर रही हैं। परिस्थिति का प्रभाव सीखने पर ज्यादा होता है । जितनी सीखने की बातें हैं वे परिस्थिति से प्रभावित होती हैं। संवेदन का क्षेत्र उससे परे रह जाता है । वह उससे प्रभावित नहीं होता । आदमी भाषा सीखता है, चिन्तन करना सीखता है । यह भी सिखाया जाता है कि कैसे सोचना चाहिए । ये पूरे कोर्स चलते हैं कि व्यवस्था कैसे करें ? प्रबंध कौन करे ? कैसे पढ़ायें ? कैसे सोचें ? यह सारा का सारा विकास परिस्थिति - सापेक्ष होता है । परिस्थिति होती है, आदमी उसी प्रकार का ज्ञान अर्जित कर लेता है । वर्तमान परिस्थिति में ज्ञान की अनेक नई शाखाएं चल पड़ीं। आज आदमी बहुत प्रकार की बातें सीखता है । शायद मध्ययुग में इतनी शाखाएं नहीं थीं । आदमी बहुत जल्दी विद्वान् बन जाता। बहुत जल्दी अपने आपको पण्डित मान लेता। संस्कृत भाषा पढ़ जाता, संस्कृत का विद्वान् हो जाता । लिखना भी नहीं जानता । कुछ निर्माण करना भी नहीं जानता । सृजनात्मक साहित्य की विधि को भी नहीं जानता, पर भाषा सीखी और विद्वान् बन गया। पुराने जमाने में तो ऐसा होता था कि थोड़ा पढ़ा-लिखा आदमी भी बहुत बड़ा बन जाता था । एक आदमी था गांव में। थोड़ा बहुत पढ़ गया । पत्र पढ़ने लगा। गांव के लोग आते हैं कि भई, पत्र आया है, पढ़ दो। पढ़ना भी नहीं जानते थे लोग । अब वह गांव में अकेला रहा। चाहे तार आए, चाहे पत्र आए - एकाकी पढ़ने वाला। बड़ा अहंकार होने का प्रसंग है। चाहे कितना ही छोटा पढ़ा-लिखा हो किन्तु यह अनुभव हो कि मैं अकेला ही जानता हूं, दूसरा नहीं जानता है तो अहंकार को फलित होने के लिए अच्छा मौसम बन जाता है । अहंकार के लिए अच्छी उर्वरा हो जाती है बड़ा अहंकार आ गया। एक दिन एक आदमी पत्र लेकर आया, बोला- पत्र पढ़ दो। पढ़े क्या ? पढ़ा हुआ तो था नहीं विशेष, थोड़ा बहुत काम निकाल लेता था । पत्र आ गया साहित्यिक भाषा में । उलट-पलट कर देखा। समझ में तो नहीं आया । जो भी ऊटपटांग बातें थीं वे सारी कह दीं । यह लिखा है, वह लिखा है। उसे क्या पता ? उसने कहा- 'ठीक है । यह तो पढ़ना जानता है, ठीक पढ़ा है । ' चौथे-पांचवें दिन उसका भाई पहुंचा। स्टेशन पर किसी को न देखकर बड़ा रुष्ट हो गया । उसने मन ही मन सोचा - मैंने पत्र लिखा था कि दस कोस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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