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________________ परिस्थितिवाद और हृदय-परिवर्तन १११ कोई आदमी बोल नहीं सकता। बच्चे पैदा हो गए, कोई बोला नहीं। कोई बातचीत नहीं करता। बच्चे बढ़ते गए, बढ़ते गए। एक महीने के हुए, एक बरस के हो गए। दो बरस के हुए, तीन बरस के हो गए और पांच बरस के हो गए। पर यह क्या ? कुछ भी नहीं। केवल ऊ ऊं...... । बस, संकेत के सिवाय कोई भाषा नहीं। कोरा संकेत, और कुछ नहीं। संकेत के सिवाय कुछ जानते भी नहीं। पचास बरस के भी हो जाएं और ऐसे वातावरण में रहें कि जहां शब्द सुनने को न मिले तो कोई बच्चा बोल नहीं सकेगा, कोई जवान बोल नहीं सकेगा और बूढ़ा हो जाने पर भी बोल नहीं सकेगा। ऐसी घटनाएं घटित होती हैं कि बच्चों को भेड़िया या दूसरे जानवर उठाकर ले जाते हैं। उन्हें पालते हैं। वे बच्चे भेड़ियों की तरह चारों पैरों से चलने लगते हैं। दोनों हाथों को अपना पैर बना लेते हैं। दौड़ते हैं। वैसे ही खाते हैं और वही भाषा बोलते हैं, जो भेड़ियों की भाषा होती है। जिस जानवर के पास पलते हैं, उसकी जो भाषा होती है, उस भाषा में बोलते हैं। कोई भी मनुष्य सामाजिक वातावरण के बिना, सामाजिक परिवेश के बिना बोलना नहीं सीख सकता, भाषा नहीं सीख सकता। भाषा नहीं सीख सकता इसका अर्थ है चिंतन करना भी नहीं सीख सकता। चिंतन करना नहीं सीख सकता इसका अर्थ है व्यवहार का परिष्कार करना भी नहीं सीख सकता और व्यवहार का परिष्कार करना नहीं सीख सकता, इसका अर्थ होता है हृदय-परिवर्तन करना भी नहीं सीख सकता, आचरण को बदलना भी नहीं सीख सकता। व्यक्ति का बदलना, व्यवहार का बदलना, हृदय का बदलना, आचरण का बदलना-ये सारी बातें दो आधारों पर होती हैं-एक है-चिन्तन । दूसरा है-भाषा । यदि भाषा का विकास किया होता तो आज गाय आदमी से पीछे नहीं रहती। शेर आदमी से पीछे नहीं होता। बैल, भैंस और सांड इतने शक्तिशाली हैं कि आदमी उनके सामने कुछ भी नहीं है। पर बेचारों को भाषा नहीं मिली, चिंतन नहीं मिला। ऐसे के ऐसे रह गए। आदमी वातावरण से सीखता है, भाषा को सीखता है। जो सामाजिक वातावरण में जीता है, माताओं को बोलते देखता है, जो अपने आस-पास में बातचीत को देखता है, बोलने का प्रयत्न करता है। बोल नहीं सकता फिर भी छोटा बच्चा बोलने के लिए बड़ा कसमसाता है। सारी शक्ति लगाकर बोलना चाहता है, पर जब तक स्वरयन्त्र पूरा विकसित नहीं हो जाता, पूरा काम करने नहीं लग जाता, तब तक बोल नहीं पाता। फिर थोड़ा बड़ा होता है, एक-एक शब्द को पकड़ना शुरू करता है और पकड़ते-पकड़ते पूरा बोलने लग जाता है। पूरी भाषा को सीख लेता है। परिस्थिति के कारण, सामाजिक वातावरण के कारण व्यक्ति भाषा को पकड़ता है, शब्दों को पकड़ता है और भाषावान् बन जाता है, सभाषक बन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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