SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिस्थितिवाद और हृदय परिवर्तन क्या कितना आकर्षक! इसे देखूं भी नहीं ? इतनी भीनी-भीनी गंध आ रही है, इसे सूंघूं भी नहीं ? यह कैसे हो सकता है ?' राजा सूंघ रहा है। इधर-उधर कर रहा है और भीतर में तो एक आग उठ रही है । लपटें उठ रही हैं। पता नहीं कैसे रोक रहा है ? अगर मंत्री का नियंत्रण सामने नहीं होता, अगर दूसरे लोगों का नियंत्रण नहीं होता तो वह आम कभी का उदरस्थ हो जाता, कभी का पेट में चला जाता। पर वह थोड़ा बहुत नियन्त्रण काम कर रहा है। नियन्त्रण भी बहुत काम करता है। बाहरी नियन्त्रण भी बिलकुल बेकार नहीं होता । बाहर का अनुशासन भी बिलकुल व्यर्थ नहीं होता । काम करता है। आदमी संकोच के साथ बुराई से बच जाता है जब भीतर की आग बहुत प्रबल होती है तब बाहर का नियन्त्रण भी बेकार होने लग जाता है। कितनी देर तक तो राजा ऐसे, वैसे उलटता-पलटता रहा, फिर मुंह के पास ले जाने लगा। मंत्री ने हाथ पकड़ा - 'महाराज ! क्या कर रहे हैं ? अनर्थ कर रहे हैं । वैद्य की मनाही है। इस बार यदि आपने आम खा लिया तो फिर कोई उपचार नहीं है । फिर मृत्यु के सिवाय कोई रास्ता नहीं है । आप क्या कर रहे हैं ? मौत की ओर जा रहे हैं ?' एक ओर राजा मौत की ओर प्रस्थान कर रहा है, दूसरी ओर मंत्री निषेध कर रहा है, तीसरी ओर भीतर से वर्जना आ रही है कि मुझे यह काम नहीं करना चाहिए। इन विभिन्न प्रकार के विरोधी मनों के बीच राजा बैठा हुआ है। कहानी लम्बी है । आगे बढ़ती है। हमें कहानी में नहीं उलझना है । यह सचाई है कि मन की ये विरोधी धारणाएं, विरोधी प्रवृत्तियां सामने आती हैं और व्यक्ति उलझन में फंस जाता है। किस मन की बात मानूं ? पहले मन की बात मानूं, दूसरे मन की बात मानूं या तीसरे मन की बात मानूं ? जैसे एक आदमी भाषण देता है। तीन भाषण देता है । पहले तो कुछ समझ कर आता है कि मुझे क्या बोलना है । वह होता है पहले का भाषण, तैयारी का भाषण । दूसरा है बोलते समय का भाषण और तीसरा है - यह बात कहता तो और अच्छा रहता । यह बात छूट गई। यह बात मुझे कहनी चाहिए थी । बाद का भाषण है तीसरा । एक पहले का भाषण, दूसरा मध्य का भाषण और तीसरा बाद का भाषण । वैसे ही हमारा चिन्तन भी तीन प्रकार का होता है। तीन नहीं और ज्यादा होता है । मन न जाने कितने प्रकार का होता है । शायद प्रात:काल एक प्रकार का मन, मध्याहन काल में दूसरे प्रकार का मन और सायंकाल तीसरे प्रकार का मन । रात के पहले प्रहर में चौथे प्रकार का मन । सोते-सोते पांचवें प्रकार का मन और जागते-जागते छठे प्रकार का मन । यह तो बहुत स्थूल Jain Education International १०९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy