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कैसे सोचें ?
देता है । पर प्रदर्शन किए बिना रहा नहीं जाता। दिखाना ही पड़ता है। इतना हो गया चाहे मकान बनाकर दिखाए, चाहे आभूषण पहन कर दिखाए, चाहे दहेज देकर दिखाए पर प्रदर्शन तो करना ही पड़ेगा, जिससे दूसरे को भान हो सके कि इसके पास इतना वैभव है । यह वैभव की प्रकृति है । वह छोटा भाई वैभव का प्रदर्शन करने लगा ।
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बड़े भाई में स्थिति आई, धन सारा चला गया। अंगूठी अंगुली में पहनी हुई थी। बड़ी समस्या आ गई, कष्ट का समय आ गया पर रोज वह अपनी अंगूठी का प्रयोग कर लेता। सुबह ही उस पर लिखा हुआ पढ़ लेता कि ये भी बीत जाएंगे' – ये दिन भी शाश्वत नहीं हैं, बदलने वाले हैं । आज जो समस्या है यह भी सदा रहने वाली नहीं है, यह भी चली जाएगी। एक आलम्बन था प्रज्ञा का, एक सहारा था । उस आलम्बन से उसने कठिनाई के दिन बिता दिए । उसका मनोबल डिगा नहीं, आत्म-विश्वास बना रहा । कष्ट के दिन बीत गए, स्थिति आई, फिर से वह शक्तिशाली बन गया । संपन्न बन गया, सारी समस्याएं सुलझ गईं ।
छोटा भाई प्रदर्शन करता चला, करता चला, आखिर धन का कोई स्रोत तो था नहीं, समाप्त हो गया । वह गरीब हो गया। बड़ी समस्या पैदा हो गई। आलम्बन कोई था नहीं। वह गरीबी में इतना उलझा कि फिर कभी उठ ही नहीं पाया। कभी नहीं उठ पाया ।
गरीबी दोनों में आई, एक गरीबी से उठ गया, इसलिए उठा कि उसका मनोबल क्षीण नहीं हुआ। दूसरा गरीबी में उलझ गया, इसलिए उलझ गया कि उसके पास मनोबल को बनाए रखने का कोई साधन नहीं था ।
आदमी उठता है, गिरता है, गिरता है और उठता है । उठने, गिरने में कोई बड़ी बात नहीं है। यह तो एक स्वाभाविक प्रक्रिया है । उदय होना और अस्त होना, कोई बड़ी बांत नहीं है । किन्तु उठने और गिरने में बड़ी बात वह होती है कि जिसका मनोबल टूट जाता है वह गिर कर उठ नहीं पाता । और उठता है तो फिर गिर जाता है । जिसका मनोबल बराबर बना रहता है वह गिर जाए तो भी कोई बात नहीं और उठा हुआ होता है तो भी कोई समस्या की बात नहीं । मूल बात है मनोबल की सुरक्षा । यह मनोबल रह सकता
- प्रज्ञा के पुष्टका आप के द्वारा । प्रज्ञा का आलंबन पुष्ट होता है तो मनोबल कभी क्षीण नहीं होता, साहस कभी क्षीण नहीं होता । जिसके साथ प्रज्ञा की अंगूठी थी वह समस्या से उबर गया और जिसके पास हीरे की थी वह समस्या में उलझ गया। हमारे लिए हीरा बहुत कीमती नहीं होता । मनोबल हीरे से भी ज्यादा कीमती होता है। मनोबल के सहारे असंख्य हीरे उपलब्ध
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