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________________ ९६ कैसे सोचें ? करना होगा - अप्पा अप्पं विजाणति - अपने आपका भरोसा करना । अपने आपका निर्णय करना कि मुझे क्या करना है और मेरा क्या कर्त्तव्य है । इस निर्णय के आधार पर यह सारी स्थिति बन सकती है । यह एक पुष्ट आलंबन है, किसी के कहने पर मत चलो। कोई बहुत अच्छा कह दे तो अपने आपको बड़ा मत मानो। कोई निंदा करे, उससे अपने आपको हीन मत मानो । बड़ा धोखा होता है, बड़ी विडम्बना होती है । कुछ लोग ऐसे होते हैं जो छोटे से आदमी की इतनी प्रशंसा कर देते हैं कि उस प्रशंसा के आधार पर चले तो वह ऐसा लड़खड़ाएगा कि गड्ढे में गिरेगा और कभी उठ ही नहीं सकेगा । कुछ था तो नहीं, प्रशंसा बहुत कर दी । ऐसे ललचाने वाले, प्रलोभन देने वाले बहुत लोग होते हैं, बहुत झूठी बात कह देते हैं । अब तो उसमें अपना तो कुछ है नहीं । प्रशंसा के सहारे फूल गया। कोई बड़ा काम करने चला जाए तो धोखा खाकर ही आना पड़ता है । और कभी - कभी ऐसा भी होता है कि बहुत शक्तिशाली आदमी होता है किन्तु हीनता की बात बार-बार सामने आती है तो उसकी शक्ति क्षीण होने लग जाती है। इसका कारण है कि वह उस बात में आ जाता है। अपनी शक्ति का परीक्षण तो स्वयं को होना चाहिए कि मैं यह काम कर सकता हूं या नहीं। अपनी शक्ति का भरोसा और पुरुषार्थ पर स्वयं को विश्वास होना चाहिए । परिस्थिति और प्रसंग ऐसा होता है कि उत्तेजना आ जाती है । एक व्यक्ति क्रोध कर रहा है, आवेश में आ रहा है, उस समय उत्तेजना आना स्वाभाविक है । एक आलंबन दिया गया कि उस समय व्यक्ति यह सोचे-यह अज्ञानी है। अज्ञान के कारण क्रोध कर रहा है। जो बात शांति के साथ सुलझाई जा सकती है, जिस समस्या का समाधान शांत भाव से उपलब्ध किया जा सकता है उस स्थिति के लिए यह क्रोध कर रहा है । यह अज्ञानी है तो क्या • मुझे भी अज्ञानी बनना चाहिए ? मैं भी अज्ञानी बनूं ? अगर यह क्रोध कर रहा है तो क्या मैं भी क्रोध के प्रति क्रोध करूंगा ? यह बचकानापन कर रहा है तो मैं भी बचकानापन करूंगा ? मैं यह बचकानापन न करूं, बाल न बनूं, अज्ञानी न बनूं - यह पुष्ट आलम्बन है । यह बहुत बड़ा आलंबन है जो विवेक को स्फुरणा देता है । वह यह विवेक देता है कि समस्या को उत्तेजना से नहीं सुलझाया जा सकता, समस्या का समाधान संतुलित भाव से उपलब्ध किया जा सकता है। यह हमारी प्रज्ञा का आलंबन है । यह बात बुद्धि की बात नहीं है । मैंने जितनी अभी चर्चा की है, वह सारी चर्चा बुद्धि की चर्चा नहीं है । यानी आप बुद्धि के आधार पर चलेंगे तब तो स्वाभाविक होगा क्रोध के प्रति क्रोध, गाली के प्रति गाली, निंदा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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