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________________ प्रतिक्रिया से कैसे बचें ? (२) ही किसी को मान्यता दे दे। नई पीढ़ी में मान्यता प्राप्त करने की छटपटाहट होती है और पुरानी पीढ़ी को अपना अहं होता है, अपना मान-दण्ड होता है, इसलिए वह नई पीढ़ी को नए मानदण्डों के आधार पर मान्यता देने में सकुंचाती है। यह संघर्ष साहित्य, आयुर्वेद और धर्म-सभी क्षेत्रों में रहा है। 'पुराना होने मात्र से सब कुछ अच्छा नहीं होता'-महाकवि कालिदास का यह स्वर दो पीढ़ियों के संघर्ष से उत्पन्न स्वर है। उनके काव्य और नाटक के प्रति पुराने विद्वानों ने उपेक्षापूर्ण व्यवहार किया, तब उन्हें यह कहने के लिए बाध्य होना पड़ा-'पुराना होने मात्र से कोई काव्य प्रकृष्ट नहीं होता, और नया होने मात्र से कोई काव्य निकृष्ट नहीं होता। साधुचेता पुरुष परीक्षा के बाद ही किसी काव्य को प्रकृष्ट या निकृष्ट बतलाते हैं और जो मूढ़ होता है, वह बिना सोचे-समझे पुराणता का गीत गाता रहता है।' आचार्य वाग्भट्ट ने अष्टांगहृदय का निर्माण किया। आयुर्वेद के धुरंधर आचार्यों ने उसे मान्य नहीं किया। वाग्भट्ट को भी पुरानी पीढ़ी के तिरस्कार का पात्र बनना पड़ा। उसी मन:स्थिति में उन्होंने यह लिखा-'वायु की शांति के लिए तेल, पित्त की शांति के लिए घी और श्लेष्म की शांति के लिए मधु पथ्य है। यह बात चाहे ब्रह्मा कहे या ब्रह्मा के पुत्र, इसमें वक्ता का क्या अन्तर आयेगा ? वक्ता के कारण द्रव्य की शक्ति में कोई अन्तर नहीं आता, इसलिए आप मात्सर्य को छोड़कर मध्यस्थ दृष्टि का आलम्बन लें। प्राचीनता और नवीनता के प्रश्न पर महाकवि कालिदास और वाग्भट्ट का चिंतन बहुत महत्त्वपूर्ण है। किन्तु इस विषय में आचार्य सिद्धसेन की लेखनी ने जो चमत्कार दिखाया है, वह प्राचीन भारतीय साहित्य में दुर्लभ है। उनका चिन्तन है कि कोई व्यक्ति नया नहीं है और कोई पुराना नहीं है। जिसे नया पुराना मानते हैं, एक दिन वह भी नया था और जिसे हम नया मानते हैं, वह भी एक दिन पुराना हो जाएगा। आज जो जीवित है, वह मरने के बाद नई पीढ़ी के लिए पुरानों की सूची में आ जाता है। पुराणता अवस्थित नहीं है, इसलिए पुरातन व्यक्ति की कही हुई बात पर भी बिना परीक्षा किए कौन विश्वास करेगा? प्रत्येक परम्परा में, चाहे वह आयुर्वेद की परम्परा हो, चाहे संस्कृत काव्य की, दर्शन की या धर्म की परम्परा हो, पुरानी पीढ़ी नई पीढ़ी को सदा कमजोर मानती रही है। यह हमारी मनोवृत्ति है। ऐसा होता है। उस स्थिति में, यदि दूसरों के मानने के आधार पर और दूसरों के कहने के आधार पर हम चलें, तो हमारे मन में या तो हीनता का विकास होगा, हीन भावना की ग्रन्थी बनेगी या हमारी कर्तृत्व की शक्ति क्षीण हो जाएगी। अत: यह निर्णय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003094
Book TitleKaise Soche
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages274
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size12 MB
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