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जैनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा
कर्म दो प्रकार के होते हैं१. निकाचित—जिनका विपाक अन्यथा नहीं हो सकता है। २. दलिक-जिनका विपाक अन्यथा भी हो सकता है।
दूसरे शब्दों में १. निरुपक्रम-इसका कोई प्रतिकार नहीं होता, इसका उदय अन्यथा नहीं हो सकता । २. सोपक्रम—यह उपचार-साध्य होता है।
निकाचित कर्मोदय की अपेक्षा से जीव कर्म के अधीन ही होता है। दलिक की अपेक्षा से दोनों बातें हैं-जहां जीव उसको अन्यथा करने के लिए कोई प्रयत्न नहीं करता, वहां वह उस कर्म के अधीन होता है और जहां जीव प्रबल धृति, मनोबल, शरीर-बल आदि सामग्री की सहायता से सत्प्रयत्न करता है वहां कर्म उसके अधीन होता है। उदय-काल से पूर्व कर्म को उदय में ला, तोड़ डालना, उसकी स्थिति और रस को मंद कर देना, यह सब इस स्थिति में हो सकता है। यदि यह न होता तो तपस्या करने का कोई अर्थ नहीं रहता। पहले बंधे हुए कर्मों की स्थिति और फलशक्ति नष्ट कर, उन्हें शीघ्र तोड़ डालने के लिए ही तपस्या की जाती है । पातंजल-योगभाष्य में भी अदृष्ट-जन्म-वेदनीय कर्म की तीन गतियां बताई हैं। उनमें कई कर्म विना फल दिए ही प्रायश्चित्त आदि के द्वारा नष्ट हो जाते हैं। एक गति यह है। इसी को जैन-दृष्टि में उदीरणा कहा है। उदीरणा
गौतम ने पूछा'भगवन् ! जीव उदीर्ण-कर्म-पुद्गलों की उदीरणा करता है ?
जीव अनुदीर्ण कर्म-पुद्गलों की उदीरणा करता है ? जीव अनुदीर्ण किन्तु उदीरणा-योग्य कर्म-पुद्गलों की उदीरणा करता है ? जीव उदयानन्तर पश्चात्-कृत कर्म-पुद्गलों की
उदीरणा करता है ?' भगवान् ने कहा'गौतम ! जीव उदीर्ण की उदीरणा नहीं करता।
जीव अनुदीर्ण की उदीरणा नहीं करता। जीव अनुदीर्ण किन्तु उदीरणा-योग्य की उदीरणा
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