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________________ कर्मवाद प्रवेश ) है । जिस अध्यवसाय से जीव कर्म - प्रकृति का बंध करता है, उसकी तीव्रता के कारण वह पूर्वबद्ध सजातीय प्रकृति के दलिकों को बध्यमान प्रकृति के दलिकों के साथ संक्रान्त कर देता है, परिणत या परिवर्तित कर देता है - वह संक्रमण है । संक्रमण के चार प्रकार हैं- १. प्रकृति - संक्रमण, २. स्थितिसंक्रम, ३. अनुभाव - संक्रम, ४. प्रदेश - संक्रमण । प्रकृति - संक्रम से पहले बंधी हुई प्रकृति ( कर्म - स्वभाव) वर्तमान में बंधने वाली प्रकृति के रूप में बदल जाती है । इसी प्रकार स्थिति, अनुभाव और प्रदेश का परिवर्तन होता है । अपवर्तन, उद्वर्तन, उदीरणा और संक्रमण – ये चारों उदयावलिका ( उदयक्षण) के बहिर्भूत कर्म - पुद्गलों के ही होते हैं । उदयावलिका में प्रविष्ट कर्म - पुद्गल के उदय में कोई परिवर्तन नहीं होता । अनुदित कर्म के उदय में परिवर्तन होता है । पुरुषार्थ के सिद्धांत का यही ध्रुव आधार है । यदि यह नहीं होता तो कोरा नियतिवाद ही होता | ८९ आत्मा स्वतन्त्र है या कर्म के अधीन ? कर्म की मुख्य दो अवस्थाएं हैं-बन्ध और उदय । दूसरे शब्दों में ग्रहण और फल । कर्म ग्रहण करने में जीव स्वतंत्र है और उसका फल भोगने में परतन्त्र । जैसे कोई व्यक्ति वृक्ष पर चढ़ता है, वह चढ़ने में स्वतन्त्र है --- इच्छानुसार चढ़ता है । प्रमाद-वश गिर जाए तो वह गिरने में स्वतंत्र नहीं है । इच्छा से गिरना नहीं चाहता, फिर भी गिर जाता है, इसलिए गिरने में परतन्त्र है । इसी प्रकार विष खाने में स्वतन्त्र है और उसका परिणाम भोगने में परतंत्र । एक रोगी व्यक्ति भी गरिष्ठ से गरिष्ठ पदार्थ खा सकता है, किंतु उसके फलस्वरूप होने वाले अजीर्ण से नहीं बच सकता । कर्म - फल भोगने में जीव स्वतंत्र नहीं है, यह कथन प्रायिक है । कहीं-कहीं जीव उसमें स्वतंत्र भी होते हैं । जीव और कर्म का संघर्ष चलता रहता है । जीव के काल आदि लब्धियों की अनुकूलता होती है, तब वह कर्मों को पछाड़ देता है और कर्मों को बहुलता होती है, तब जीव उनसे दब जाता है । इसलिए यह मानना होता है कि कहीं जीव कर्म के अधीन है और कहीं कर्म जीव के अधीन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003092
Book TitleJain Darshan me Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages112
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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