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कर्मवाद
करता है। जीव उदयानन्तर पश्चात्-कृत-कर्म की उदीरणा
नहीं करता।' १. उदीर्ण कर्म-पुद्गलों की फिर से उदीरणा करे तो उस उदीरणा की कहीं भी परिसमाप्ति नहीं होती। इसलिए उदीर्ण की उदीरणा का निषेध किया गया है।
२. जिन कर्म-पुद्गलों की उदीरणा सुदूर भविष्य में होने वाली है, अथवा जिनकी उदीरणा नहीं होने वाली है, उन अनुदीर्ण-कमपुद्गलों की भी उदीरणा नहीं हो सकती।
३. जो कर्म-पुद्गल उदय में आ चुके (उदयानन्तर पश्चात्कृत्), वे सामर्थ्य-हीन बन गए, इसलिए उनकी भी उदीरणा नहीं होती।
४. जो कर्म-पुद्गल वर्तमान में उदीरणा-योग्य (अनुदीर्ण, किन्तु उदीरणा योग्य) हैं, उन्हीं की उदीरणा होती है । उदोरणा का हेतु
कर्म के स्वाभाविक उदय में नये पुरुषार्थ की आवश्यकता नहीं होती । बन्ध-स्थिति पूरी होती है, कर्म-पुद्गल अपने आप उदय में आ जाते हैं । उदीरणा द्वारा उन्हें स्थिति-क्षय से पहले उदय में लाया जाता है। इसलिए इसमें विशेष प्रयत्न या पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है।
गौतम ने पूछा-'भगवन् ! अनुदीर्ण, किन्तु उदीरणा-योग्य कर्म-पुद्गलों की जो उदीरणा होती है, वह उत्थान, कर्म बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम के द्वारा होती है अथवा अनुत्थान, अकर्म, अबल, अवीर्य, अपुरुषकार और अपराक्रम के द्वारा ?'
___ भगवान् ने कहा-'गौतम ! जीव उत्थान आदि के द्वारा अनुदीर्ण किन्तु उदीरणा योग्य कर्म-पुद्गलों की उदीरणा करता है, किन्तु अनुत्थान आदि के द्वारा उदीरणा नहीं करता।'
यह भाग्य और पुरुषार्थ का समन्वय है। पुरुषार्थ द्वारा कर्म में परिवर्तन किया जा सकता है, यह स्पष्ट है।
कर्म की उदीरणा 'करण' के द्वारा होती है। 'करण' का अथ है 'योग' । योग के तीन प्रकार हैं
१. शारीरिक व्यापार ।
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