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जैनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा
है । दूसरी की काल मर्यादा का आरम्भ होता है - वह उसका उदय है । बंधे हुए कर्म - पुद्गल अपना कार्य करने में समर्थन हो जाते हैं, तब उनके निषेक ( कम-पुद्गलों की एक काल में उदय होने योग्य रचना - विशेष ) प्रकट होने लगते हैं, वह उदय है ।
कर्म का उदय दो प्रकार का होता है
१. प्राप्त - काल कर्म का उदय ।
२. अप्राप्त - काल कर्म का उदय ।
कर्म का बंध होते ही उसमें विपाक-प्रदर्शन की शक्ति नहीं हो जाती । वह निश्चित अवधि के पश्चात् ही पैदा होती है। कर्म की यह अवस्था ‘अबाधा' कहलाती है । उस समय कर्म का अवस्थान- मात्र होता है, किन्तु उसका कर्तृत्व प्रकट नहीं होता । इसलिए वह कर्म का अवस्थान काल है । 'अबाधा' का अर्थ है - अन्तर । बंध और उदय के अन्तर का जो काल है, वह 'अबाधाकाल' है ।' 'अबाधाकाल' के द्वारा स्थिति के दो भाग होते हैं
१. अवस्थानकाल |
२. अनुभव या निषेक-काल ।
आबाधा-काल के समय कोरा अवस्थान होता है, अनुभव नहीं । अनुभव अबाधा-काल पूरा होने पर होता है। जितना अबाधाकाल होता है, उतना अनुभव - काल से अवस्थान-काल अधिक होता है | अबाधाकाल को छोड़कर विचार किया जाए तो अवस्थान और निषेक या अनुभव - ये दोनों समकाल मर्यादा वाले होते हैं । चिरकाल और तीव्र अनुभाग वाले कर्म तपस्या के द्वारा विफल बना थोड़े समय में भोग लिये जाते हैं । आत्मा शीघ्र उज्ज्वल बन जाती है ।
काल मर्यादा पूर्ण होने पर कर्म का वेदन या भोग प्रारम्भ होता है । वह प्राप्त काल उदय है । यदि स्वाभाविक पद्धति से ही कर्म उदय में आयें तो आकस्मिक घटनाओं की सम्भावना तथा तपस्या की प्रायोजकता ही नष्ट हो जाती है । इसलिए आकस्मिक घटनाएं भी सिद्धांत के प्रति संदेह पैदा नहीं करतीं । तपस्या की सफलता का भी यही हेतु है ।
सहेतुक और निर्हेतुक उदय
कर्म का परिपाक और उदय अपने-आप भी होता है और दूसरों के द्वारा भी, सहेतुक भी होता है और निर्हेतुक भी । कोई
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