________________
कर्मवाद
८१
७. उच्च - गोत्र-कर्म के उदय से जीव विशिष्ट बनता है । इसके अनुभाव आठ हैं - जाति - विशिष्टता, कुल विशिष्टता, बल विशिष्टता, रूप - विशिष्टता, तपो विशिष्टता, श्रुत-विशिष्टता, लाभ- विशिष्टता ऐश्वर्य - विशिष्टता |
नीच - गोत्र-कर्म के उदय से जीव हीन बनता है । इसके अनुभाव आठ हैं - जाति - विहीनता, कुल-विहीनता, बल - विहीनता, रूपविहीनता, तपो-विहीनता, श्रुत-विहीनता, लाभ- विहीनता, ऐश्वर्यविहीनता ।
८. अन्तराय कर्म के उदय से आत्म-शक्ति का प्रतिघात होता है । इसके अनुभाव पांच हैं - दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, वीर्यान्तराय ।
फल की प्रक्रिया
कर्म जड़ --अचेतन है, तब वह जीव को नियमित फल कैसे दे सकता है ? यह प्रश्न न्याय - दर्शन के प्रणेता गौतम ऋषि के 'ईश्वर' के अभ्युपगम का हेतु बना । इसीलिए उन्होंने ईश्वर को कर्म - फल का नियन्ता बनाया, जिसका उल्लेख कुछ पहले किया जा चुका है । जैनदर्शन कर्म - फल का नियमन करने के लिए ईश्वर को आवश्यक नहीं समझता । कर्म-परमाणुओं में जीवात्मा के सम्बन्ध से एक विशिष्ट परिणाम होता है । वह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव, गति, स्थिति, पुद्गल - परिणाम आदि उदयानुकूल सामग्री से विपाक-प्रदर्शन में समर्थ हो जीवात्मा के संस्कारों को विकृत करता है, उससे उनका फलोपभोग होता है । सही अर्थ में आत्मा अपने किये का अपने आप फल भोगता है, कर्म-परमाणु सहकारी या सचेतक का कार्य करते हैं । विष और अमृत, अपथ्य और पथ्य भोजन को कुछ भी ज्ञान नहीं होता, फिर भी आत्मा का संयोग पा उनकी वैसी परिणति हो जाती है । उनका परिपाक होते ही खाने वाले को इष्ट या अनिष्ट फल मिलता है । विज्ञान के क्षेत्र में परमाणु की विचित्र शक्ति और उसके नियमन के विविध प्रयोगों के अध्ययन के बाद कर्मों की फलदानशक्ति के बारे में कोई संदेह नहीं रहता ।
उदय
उदय का अर्थ है-काल मर्यादा का परिवर्तन । वस्तु की पहली अवस्था की काल मर्यादा पूरी होती है - यह उसका अनुदय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org