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________________ कर्मवाद ७५ ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयुष्य, ६. नाम, ७. गोत्र, अन्तराय। ३. स्थिति यह काल-मर्यादा की व्यवस्था है। प्रत्येक कर्म आत्मा के साथ निश्चित समय तक ही रह सकता है । स्थिति पकने पर वह आत्मा से अलग जा पड़ता है । यह स्थिति-बंध है। ४. अनुभाग यह फलदान-शक्ति की व्यवस्था है। इसके अनुसार उन पुद्गलों में रस की तीव्रता और मंदता का निर्माण होता है। यह अनुभाग-बंध है। बंध के चारों प्रकार एक साथ ही होते हैं। कर्म की व्यवस्था के ये चारों प्रधान अंग हैं । आत्मा के साथ कर्म-पुद्गलों के आश्लेष या एकीभाव की दृष्टि से 'प्रदेश-बंध' सबसे पहला है । इसके होते ही उनमें स्वभाव-निर्माण, काल-मर्यादा और फल शक्ति का निर्माण हो जाता है । इसके बाद अमुक-अमुक स्वभाव, स्थिति और रस-शक्ति वाला पुदगल समह अमुक-अमुक परिमाण में बंट जाता है। यह परिमाण-विभाग भी प्रदेश-बंध है। बंध वर्गीकरण का मूल बिन्दु स्वभाव-निर्माण है। स्थिति और रस का निर्माण उसके साथ-साथ हो जाता है । परिमाण-विभाग इसका अन्तिम विभाग है । कर्म : स्वरूप और कार्य इनमें चार कोटि की पुद्गल-वर्गणाएं चेतना और आत्मशक्ति की आवारक, विकारक और प्रतिरोधक हैं। चेतना के दो रूप हैं १. ज्ञान--जानना, वस्तु-स्वरूप का विमर्श करना। २. दर्शन---साक्षात् करना, वस्तु का स्वरूप-ग्रहण । ज्ञान और दर्शन के आवारक पुद्गल क्रमशः 'ज्ञानावरण' और 'दर्शनावरण' कहलाते हैं। आत्मा को विकृत बनाने वाले पुद्गलों की संख्या 'मोहनीय' आत्मशक्ति का प्रतिरोध करने वाले पुद्गल अन्तराय कहलाते हैं। ये चार घात्यकर्म हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003092
Book TitleJain Darshan me Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages112
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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