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________________ ७६ जैनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा वेदनीय, नाम, गोत्र और आयु-ये चार अघात्यकर्म हैं। घात्यकर्म के क्षय के लिए आत्मा को तीव्र प्रयत्न करना होता है । ये चारों कर्म अशुभ ही होते हैं। इसके आंशिक क्षय या उपशम से आत्मा का स्वरूप आंशिक मात्रा में उदित होता है । इनके पूर्ण क्षय से आत्म-स्वरूप का पूर्ण विकास होता है। वेदनीय, आयूष्य, नाम और गोत्र-~ये चार कर्म शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के होते हैं । अशुभकर्म अनिष्ट-संयोग और शुभकर्म इष्ट-संयोग के निमित्त बनते हैं। इन दोनों का जो संगम है, वह संसार है । पुण्य-परमाणु सुख-सुविधा के निमित्त बन सकते हैं, किन्तु उनसे आत्मा की मूक्ति नहीं होती। ये पूण्य और पाप-दोनों बन्धन हैं। मुक्ति इन दोनों के क्षय से होती है।। वेदनीय कर्म के दो प्रकार हैं-सात वेदनीय और असात वेदनोय । ये क्रमशः सुखानुभूति और दुःखानुभूति के निमित्त बनते हैं। इनका क्षय होने पर अनन्त आत्मिक आनन्द का उदय होता नाम-कर्म के दो प्रकार हैं-शुभ नाम और अशुभ नाम। शुभ नाम के उदय से व्यक्ति सुन्दर, आदेयवचन, यशस्वी और विशाल व्यक्तित्व वाला होता है तथा अशुभ नाम के उदय से इसके विपरीत होता है। इनके क्षय होने पर आत्मा अपने नैसर्गिक भाव–अमूर्तिकभाव में स्थित हो जाता है । गोत्र कर्म के दो प्रकार हैं-उच्च गोत्र और नीच गोत्र । ये क्रमशः उच्चता और नीचता, सम्मान और असम्मान के निमित्त बनते हैं। इनके क्षय से आत्मा अगुरु-लघुपूर्ण सम बन जाता है। आयुष्य के दो प्रकार हैं-- शुभ आयु और अशुभ आयु । ये क्रमशः सुखो-जीवन और दुःखो जीवन के निमित्त बनते हैं। इनके क्षय से आत्मा अ-मृत और अ-जन्मा बन जाता है। ये चारों भवोपनाही कर्म हैं। इनके परमाणुओं का वियोग मुक्ति होने के समय एक साथ होता है । बंध की प्रक्रिया आत्मा में अनन्त वीर्य (सामर्थ्य) होता है। उसे लब्धि-वीर्य कहा जाता है । यह शुद्ध आत्मिक सामर्थ्य है। इसका बाह्य जगत् में कोई प्रयोग नहीं होता। आत्मा का बहिर्-जगत् के साथ जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003092
Book TitleJain Darshan me Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages112
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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