________________
जैनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा गौतम---'भगवन् ! वह किन कारणों से बांधता है ?' भगवान्-‘गौतम ! उसके दो हेतु हैं-प्रमाद और योग ।' गौतम-'भगवन् ! प्रमाद किससे उत्पन्न होता है ?' भगवान्-'योग से।' गौतम-'योग किससे उत्पन्न होता है ?' भगवान्-'वीर्य से।' गौतम-'वीर्य किससे उत्पन्न होता है ?' भगवान्-'शरीर से।' गौतम-'शरीर किससे उत्पन्न होता ?' भगवान्-'जीव से।'
तात्पर्य यह है कि जीव शरीर का निर्माता है। क्रियात्मक वीर्य का साधन शरीर है। शरीरधारी जीव ही प्रमाद और योग के द्वारा कर्म (कांक्षामोहनीय) का बंध करता है। स्थानांग और प्रज्ञापना में कर्मबंध के क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चार कारण बतलाएं हैं।
बंध
माकंदिकपुत्र ने पूछा-'भगवन् ! भाव-बंध कितने प्रकार का
भगवान् ने कहा-'माकंदिकपुत्र ! भाव-बंध दो प्रकार का है--मूल-प्रकृति-बंध और उत्तर-प्रकृति-बंध ।'
बंध आत्मा और कर्म के सम्बन्ध की पहली अवस्था है। वह चार प्रकार की है-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश । १. प्रदेश
___ बन्ध का अर्थ है-आत्मा और कर्म का संयोग और कर्म का निर्मापण-व्यवस्थाकरण । ग्रहण के समय कर्म-पुद्गल अविभक्त होते हैं। ग्रहण के पश्चात् वे आत्मप्रदेशों के साथ एकीभूत होते हैं। यह प्रदेश-बंध (या एकीभाव की व्यवस्था) है। २. प्रकृति
वे कर्म-परमाणु कार्य-भेद के अनुसार आठ वर्गों में बंट जाते हैं। इसका नाम प्रकृति-बंध (स्वभाव-व्यवस्था) है। कर्म की मूल प्रकृतियां (स्वभाव) आठ हैं-१. ज्ञानावरण, २. दर्शनावरण,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org