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________________ जैनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा उसी प्रकार बाधक प्रमाण न मिलने से भी उसका अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। आत्मा को सिद्ध करने के लिए साधक प्रमाण अनेक मिलते हैं, किन्तु बाधक प्रमाण एक भी ऐसा नहीं मिलता, जो आत्मा का निषेधक हो । इससे जाना जाता है कि आत्मा एक स्वतंत्र द्रव्य है। हां, यह निश्चित है कि इन्द्रियों के द्वारा उसका ग्रहण नहीं होता। फिर भी आत्मा के अस्तित्व में यह बाधक नहीं, क्योंकि बाधक वह बन सकता है, जो उस विषय को जानने में समर्थ हो और अन्य पूरी सामग्री होने पर भी उसे न जान सके। जैसे---आंख घट, पट आदि को देख सकती है, पर जिस समय उचित सामीप्य एवं प्रकाश आदि सामग्री होने पर भी वह उनको न देख सके, तब वह उस विषय की बाधक मानी जा सकती है। इंद्रियों की ग्रहणशक्ति परिमित है। वे सिर्फ पार्श्ववर्ती और स्थूल पौद्गलिक पदार्थों को ही जान सकती हैं। आत्मा अपौद्गलिक (अभौतिक) पदार्थ है। इसलिए इंद्रियों द्वारा आत्मा को न जान सकना नहीं कहा जा सकता । यदि हम बाधक प्रमाण का अभाव होने से किसी पदार्थ का सद्भाव मानें तब तो फिर पदार्थ-कल्पना की बाढ़-सी आ जाएगी। उनका क्या उपाय होगा? ठीक है, यह संदेह हो सकता है, किन्तु बाधक प्रमाण का अभाव साधक प्रमाण के द्वारा पदार्थ का सदभाव स्थापित कर देने पर ही कार्यकर होता है। आत्मा के साधक प्रमाण मिलते हैं, इसलिए उसकी स्थापना की जाती है। उस पर भी यदि संदेह किया जाता है, तब आत्मवादियों को वह हेतु भी अनात्मवादियों के सामने रखना जरूरी हो जाता है कि आप यह तो बतलाएं कि 'आत्मा नहीं है। इसका प्रमाण क्या है ? 'आत्मा है' इसका प्रमाण चैतन्य की उपलब्धि है। चेतना हमारे प्रत्यक्ष है। उसके द्वारा अप्रत्यक्ष आत्मा का भी सद्भाव सिद्ध होता है । जैसे-धूम को देखकर मनुष्य अग्नि का ज्ञान कर लेता है, आतप को देखकर सूर्योदय का ज्ञान कर लेता है-इसका कारण रही है कि धुआं अग्नि का, आतप सूर्योदय का अविनाभावी हैउसके बिना वे निश्चितरूपेण नहीं होते। चेतन भूत-समुदाय का कार्य या भूत-धर्म है, यह नहीं माना जा सकता, क्योंकि भूत जड़ है। भूत और चेतना में अत्यन्ताभाव-त्रिकालवर्ती विरोध होता है। चेतन कभी अचेतन और अचेतन कभी चेतन नहीं बन सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003092
Book TitleJain Darshan me Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages112
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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