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आत्मवाद
मस्तिष्क चैतन्य सहायक धमनियों का जाल है। इसलिए मस्तिष्क की अमुक शिरा काट देने से अमुक प्रकार की अनुभूति न हो, इससे यह फलित नहीं होता कि चेतना मस्तिष्क की उपज
प्रदेश और जीवकोष
आत्मा असंख्य-प्रदेशी है। एक, दो, तीन प्रदेश जीव नहीं होते । परिपूर्ण असंख्य प्रदेश के समुदाय का नाम जीव है। वह असंख्य जीव-कोषों का पिण्ड नहीं है। वैज्ञानिक असंख्य सेल्सजीवकोषों के द्वारा प्राणी-शरीर और चेतन का निर्माण होना बतलाते हैं। वे शरीर तक सीमित हैं। शरीर अस्थायी है-एक पौद्गलिक अवस्था है। उसका निर्माण होता है और वह रूपी है, इसलिए अंगोपांग देखे जा सकते हैं। उनका विश्लेषण किया जा सकता है। आत्मा स्थायी और अभौतिक द्रव्य है। वह उत्पन्न नहीं होता और वह अरूपी है, किसी प्रकार भी इंद्रिय-शक्ति से देखा नहीं जाता। अतएव जीव-कोषों के द्वारा आत्मा की उत्पत्ति बतलाना भूल है। प्रदेश भी आत्मा के घटक नहीं हैं। वे स्वयं आत्मरूप हैं। आत्मा का परिमाण जानने के लिए उसमें उनका आरोप किया गया है। यदि वे वास्तविक अवयव होते तो उनमें संगठन, विघटन या न्यूनाधिक्य हए बिना नहीं रहता । वास्तविक प्रदेश केवल पौद्गलिक स्कन्धों में मिलते हैं। अत एव उनमें संघात या भेद होता रहता है। आत्मा अखंड द्रव्य है। उसमें संघातविघात कभी नहीं होते और न उसके एक-दो-तीन आदि प्रदेश जीव कहे जाते हैं। आत्मा कृत्स्न, परिपूर्ण लोकाकाश तुल्य प्रदेश परिमाण वाली है। एक तन्तु भी पट का उपकारी होता है। उसके बिना पट पूरा नहीं बनता । परन्तु एक तंतु पट नहीं कहा जाता। एक रूप में समुदित तंतुओं का नाम पट है । वैसे ही जीव का एक प्रदेश जीव नहीं कहा जाता । असंख्य चेतन प्रदेशों का एक पिण्ड है, उसी का नाम जीव है। अस्तित्व सिद्धि के दो प्रकार
प्रत्येक पदार्थ का अस्तित्व दो प्रकार से सिद्ध होता हैसाधक प्रमाण से और बाधक प्रमाण के अभाव से। जैसे साधक प्रमाण अपनी सत्ता के माध्यम का अस्तित्व सिद्ध करता है, ठीक
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