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________________ आत्मवाद लोक-स्थिति का निरूपण करते हुए भगवान् महावीर ने कहा हैजीव अजीव हो जाए और अजीव जीव हो जाए, ऐसा न कभी हुआ, न होता है और न कभी होगा। इसलिए हमें आत्मा की जड़ वस्तु से भिन्न सत्ता स्वीकार करनी होती है । यद्यपि कई विचारक आत्मा को जड़ पदार्थ का विकसित रूप मानते हैं, किन्तु यह संगत नहीं है । विकास अपने धर्म के अनुकूल ही होता है और हो सकता है । चैतन्यहीन जड़ पदार्थ से चेतनावान् आत्मा का उपजना विकास नहीं कहा जा सकता । यह तो सर्वथा असत्-कार्यवाद है। इसलिए जड़त्व और चेतनत्व-इन दो विरोधी महाशक्तियों को एक मूल तत्त्वगत न मानना ही युक्तिसंगत है। स्वतंत्र सत्ता का हेतु द्रव्य का स्वतंत्र अस्तित्व उसके विशेष गुण द्वारा सिद्ध होता है। अन्य द्रव्यों में न मिलने वाला गुण जिसमें मिले, वह स्वतंत्र द्रव्य होता है। सामान्य गुण जो कई द्रव्यों में मिले, उनसे पृथक् द्रव्य की स्थापना नहीं होती। चैतन्य आत्मा का विशिष्ट गुण है । वह उसके सिवाय और कहीं नहीं मिलता । अतएव आत्मा स्वतंत्र द्रव्य है और उसमें पदार्थ के व्यापक लक्षण-अर्थक्रियाकारित्व और सत-दोनों घटित होते हैं। पदार्थ वही है जो प्रतिक्षण अपनी क्रिया करता रहे। अथवा पदार्थ वही है जो सत् हो यानी पूर्व-पूर्ववर्ती अवस्थाओं को त्यागता हुआ, उत्तर-उत्तरवर्ती अवस्थाओं को प्राप्त करता हआ भी अपने स्वरूप को न त्यागे । आत्मा में जानने की क्रिया निरंतर होती रहती है। ज्ञान का प्रवाह एक क्षण के लिए भी नहीं रुकता और वह (आत्मा) उत्पाद, व्यय के स्रोत में बहती हुई भी ध्रुव है। बाल्य, यौवन, जरा आदि अवस्थाओं एवं मनुष्य, पशु आदि शरीरों का परिवर्तन होने पर भी उसका चैतन्य अक्षुण्ण रहता है। आत्मा में रूप, आकार एवं वजन नहीं, फिर वह द्रव्य ही क्या ? यह निराधार शंका है। क्योंकि वे सब पुद्गल द्रव्य के अवान्तर लक्षण हैं। सब पदार्थों में उनका होना आवश्यक नहीं होता। पुनर्जन्म मृत्यु के पश्चात् क्या होगा ? क्या हमारा अस्तित्व स्थायी है या वह मिट जाएगा ? इस प्रश्न पर अनात्मवादी का उत्तर यह है कि वर्तमान जीवन समाप्त होने पर भी कुछ नहीं है। पांच भूतों से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003092
Book TitleJain Darshan me Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages112
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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