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________________ ५० जैनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा जीवों में पुद्गलों का स्वीकरण और उनकी क्रिया-प्रतिक्रिया -ये दोनों प्रवृत्तियां होती हैं, इसलिए उनका परिमाण सदा समान नहीं रहता। वह संकुचित या विकसित होता रहता है। फिर भी अणु जितना संकुचित और लोकाकाश जितना विकसित (केवली-समूदघात के सिवाय) नहीं होता, इसलिए जीव मध्यम परिमाण की कोटि के होते हैं। संकोच और विकोच जीवों की स्वभाव-प्रक्रिया नहीं है-वे कार्मण शरीर-सापेक्ष होते हैं। कर्म-युक्त दशा में जीव शरीर की . मर्यादा में बन्धे हुए हैं, इसलिए उनका परिमाण स्वतंत्र नहीं होता। कार्मण शरीर का छोटापन और मोटापन गति-चतुष्टय-सापेक्ष होता है। मुक्त-दशा में संकोच-विकोच नहीं, वहां चरम शरीर के ठोस (दो तिहाई ) भाग में आत्मा का जो अवगाह होता है, वही रह जाता है। आत्मा के संकोच-विकोच की दीपक के प्रकाश से तुलना की जा सकती है। खले आकाश में रखे हुए दीपक के प्रकाश अमुक परिमाण का होता है। उसी दीपक को यदि कोठरी में रख दें तो वही प्रकाश कोठरी में समा जाता है। एक घड़े के नीचे रखते हैं तो घड़े में समा जाता है। ढकनी के नीचे रखते हैं तो ढकनी में समा जाता है । उसी प्रकार कार्मण शरीर के आवरण से आत्म-प्रदेशों का भी संकोच और विस्तार होता रहता है। जो आत्मा बालक-शरीर में रहती है, वही आत्मा युवा-शरीर में रहती है और वही वृद्ध-शरीर में । स्थूल-शरीर-व्यापी आत्मा कृश-शरीर-व्यापी हो जाती है। कृश-शरीर-व्यापी आत्मा स्थूलशरीर-व्यापी हो जाती है। बद्ध और मुक्त आत्मा दो भागों में विभक्त है-बद्ध आत्मा और मुक्त आत्मा। कर्म बन्धन टूटने से जिनका आत्मीय स्वरूप प्रगट हो जाता है, वे मुक्त आत्माएं होती हैं। वे भी अनन्त हैं। उनके शरीर एवं शरीरजन्य क्रिया और जन्म-मृत्यु आदि कुछ भी नहीं होते । वे आत्म रूप हो जाती हैं । अतएव उन्हें सत्-चित्-आनन्द कहा जाता है। उनका निवास ऊंचे लोक के चरम भाग में होता है। वे मुक्त होते ही वहां पहुंच जाती हैं। आत्मा का स्वभाव ऊपर जाने का है। बन्धन के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003092
Book TitleJain Darshan me Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages112
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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