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कारण ही वह तिरछा या नीचे जाता है । ऊपर जाने के बाद वह फिर कभी नीचे नहीं आता । वहां से अलोक में भी नहीं जा सकता । वहां गति तत्त्व ( धर्मास्तिकाय) का अभाव है। दूसरी श्रेणी की जो संसारी आत्माएं हैं, वे कर्म बद्ध होने के कारण अनेक योनियों में परिभ्रमण करती हैं, कर्म करती हैं और उनका फल भोगती हैं । ये मुक्त आत्माओं से अनन्तानन्त गुनी होती हैं । मुक्त आत्माओं का अस्तित्व पृथक्-पृथक् होता है तथापि उनके स्वरूप में पूर्ण समता होती है । संसारी जीवों में भी स्वरूप की दृष्टि से ऐक्य होता है किंतु वह कर्म से आवृत रहता है और कर्मकृत भिन्नता से वे विविध वर्गों में बंट जाते हैं, जैसे पृथ्वीकायिक जीव, अप्कायिक जीव, तेजस्कायिक जीव, वायुकायिक जीव, वनस्पतिकायिक जीव, त्रसकायिक जीव । जीवों के ये छह निकाय शारीरिक परमाणुओं की भिन्नता के अनुसार रचे गये हैं । सब जीवों के शरीर एक से नहीं होते । किन्हीं जीवों का शरीर पृथ्वी होता है तो किन्हीं का पानी । इस प्रकार पृथक् पृथक् परमाणुओं के शरीर बनते हैं । इनमें पहले पांच निकाय 'स्थावर' कहलाते हैं । स जीव इधर उधर घूमते हैं, शब्द करते हैं, चलते फिरते हैं, संकुचित होते हैं, फैल जाते हैं, इसलिए उनकी चेतना में कोई संदेह नहीं होता । स्थावर जीवों में ये बातें नहीं होतीं अतः उनकी चेतनता के विषय में सन्देह होना कोई आश्चर्य की बात नहीं ।
आत्मवाद
जीव-परिमाण
जीवों के दो प्रकार हैं- मुक्त और संसारी । मुक्त जीव अनन्त हैं । संसारी जीवों के छह निकाय हैं। उनका परिमाण निम्न प्रकार है
१. पृथ्वी काय - असंख्य जीव । २. अप्काय - असंख्य जीव । ३. तेजस्काय - असंख्य जीव । ४. वायुकाय - असंख्य जीव । ५. वनस्पतिकाय - अनंत जीव ।
६. सकाय - असंख्य जीव ।
काय के जीव स्थूल ही होते हैं। शेष पांच निकाय के जीव स्थूल और सूक्ष्म - दोनों प्रकार के होते हैं । सूक्ष्म जीवों से समूचा
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