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________________ आत्मवाद ४९ जीव के नैश्चयिक लक्षण आत्मा का नैश्चयिक लक्षण चेतना है। प्राणी मात्र में उसका न्यूनाधिक यात्रा में सद्भाव होता है। यद्यपि सत्ता रूप में चैतन्य शक्ति सब प्राणियों के अनंत होती है, पर विकास की अपेक्षा से वह सब में एक-सी नहीं होती। ज्ञान के आवरण की प्रबलता एवं दुर्बलता के अनुसार उसका विकास न्यून या अधिक होती है । एकेन्द्रिय वाले जीवों में भी कम से कम एक (स्पर्शन) इन्द्रिय का अनुभव मिलेगा। यदि वह न रहे, तब फिर जीव और अजीव में कोई अन्तर नहीं रहता। जीव और अजीव का भेद बतलाते हुए, शास्त्रों में कहा है.---'केवलज्ञान (पूर्णज्ञान) का अनंतवा भाग तो सब जीवों के विकसित रहता है । यदि वह भी आवृत हो जाए तो जीव अजीव बन जाए।' मध्यम और विराट् परिमाण उपनिषदों में आत्मा के परिमाण की विभिन्न कल्पनाएं मिलती हैं । यह मनोमय पुरुष (आत्मा) अन्तर् हृदय में चावल या जौ के दाने जितना है। यह आत्मा प्रदेश-मात्र (अंगूठे के सिरे से तर्जनी के सिरे तक की दूरी जितना) है। यह आत्मा शरीर-व्यापी है । यह आत्मा सर्व-व्यापी है। हृदय-कमल के भीतर यह आत्मा पृथ्वी, अन्तरिक्ष, धुलोक अथवा इन सब लोकों की अपेक्षा बड़ा है। जीव संख्या की दष्टि से अनंत हैं। प्रत्येक जीव के प्रदेश या अविभागी अवयव असंख्य हैं। जीव असंख्य-प्रदेशी है। अतः व्याप्त होने की क्षमता की दृष्टि से लोक के समान विराट है। 'केवलीसमुद्घात' की प्रक्रिया में आत्मा कुछ समय के लिए व्यापक बन जाती है । 'मरण-समुद्घात' के समय भी आंशिक व्यापकता होती है। प्रदेश-संख्या की दृष्टि से धर्म, अधर्म, आकाश और जीवये चार समतुल्य हैं । अवगाह की दृष्टि से सम नहीं हैं। धर्म, अधर्म और आकाश स्वीकारात्मक और क्रिया-प्रतिक्रियात्मक प्रवृत्ति-शून्य हैं, इसलिए उनके परिमाण में कोई परिवर्तन नहीं होता। संसारी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003092
Book TitleJain Darshan me Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages112
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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