SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जनदर्शन में तत्त्व-मीमांसा देखे जाएं तो सूक्ष्म-दर्शक-यन्त्रों से देखे जा सकते हैं। अतएव उनमें सूक्ष्म जीवों की कोई श्रेणी नहीं। बादर एकेन्द्रिय के एक जीव का एक शरीर हमारी दृष्टि का विषय नहीं बनता। हमें जो एकेन्द्रिय शरीर दीखते हैं, वे असंख्य जीवों के, असंख्य शरीरों के पिण्ड होते हैं । सचित्त मिट्टी का एक छोटा-सा रज-कण, पानी की एक बूंद या अग्नि की एक चिनगारी-ये एक जीव के शरीर नहीं हैं। इनमें से प्रत्येक में अपनी-अपनी जाति के असंख्य जीव होते हैं और उनके असंख्य शरीर पिण्डीभूत हुए रहते हैं तथा उस दशा में दृष्टि केविषय भी बनते हैं इसलिए वे बादर हैं। साधारण वनस्पति के एक, दो, तीन या चार जीवों का शरीर नहीं दीखता, क्योंकि उनमें से एकएक जीव में शरीर-निष्पादन की शक्ति नहीं होती। वे अनन्त जीव मिलकर एक शरीर का निर्माण करते हैं। इसलिए अनन्त जीवों के शरीर स्थूल-परिणतिमान होने के कारण दृष्टि-गोचर होते हैं। इस प्रकार एकेन्द्रिय के सूक्ष्म-अपर्याप्त और पर्याप्त, बादर-अपर्याप्त और पर्याप्त ये चार भेद होते हैं। इसके बाद चतुरिन्द्रिय तक के सब जीवों के दो-दो भेद होते हैं। पंचेन्द्रियं जीवों के चार विभाग हैं। जैसे एकेन्द्रिय जीवों की सूक्ष्म और बादर---ये दो प्रमुख श्रेणियां हैं, वैसे पंचेन्द्रिय जीव समनस्क और अमनस्क-इन दो भागों में बंटे हए हैं। चार इंद्रिय तक के सब जीव अमनस्क होते हैं। इसलिए मन की लब्धि या अनुपलब्धि के आधार पर उनका कोई विभाजन नहीं होता। सम्मूर्च्छनज पंचेन्द्रिय जीवों के कोई मन नहीं होता। गर्भज और उपपातज पंचेन्द्रिय जीव समनस्क होते है। अतएव असंज्ञी-पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और पर्याप्त, संज्ञी-पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और पर्याप्ति-ये चार भेद होते हैं । संसार के प्राणी मात्र इन चौदह वर्गों में समा जाते हैं। इस वर्गीकरण से हमें जीवों के क्रमिक विकास का भी पता चलता है। एक इन्द्रिय वाले जीवों से दो इंद्रिय वाले जीव, दो इंद्रिय वालों से तीन इंद्रिय वाले जीव इस प्रकार क्रमशः पूर्व श्रेणी के जीवों से उत्तर श्रेणी के जीव अधिक विकसित हैं। इन्द्रिय-ज्ञान और पांच जातियां इंद्रिय-ज्ञान परोक्ष है। इसलिए परोक्ष-ज्ञानी को पौद्गलिक इंद्रिय की अपेक्षा रहती है। किसी मनुष्य की आंख फूट जाती है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003092
Book TitleJain Darshan me Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages112
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy