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________________ जीवन-निर्माण फिर भी वह चतुरिन्द्रिय नहीं होता। उसकी दर्शन-शक्ति कहीं नहीं जाती किन्तु आंख के अभाव में उसका उपयोग नहीं होता । आंख में विकार होता है, दीखना बन्द हो जाता है। उसकी उचित चिकित्सा हुई, दर्शन-शक्ति खुल जाती है। यह पौद्गलिक इंद्रिय (चक्षु) के सहयोग का परिणाम है। कई प्राणियों में सहायक इंद्रियों के बिना भी उसके ज्ञान का आभास मिलता है, किंतु वह उनके होने पर जितना स्पष्ट होता है, उतना स्पष्ट उनके अभाव में नहीं होता। वनस्पति में रसन आदि पांचों इंद्रियों के चिह्न मिलते हैं। उनमें भावेन्द्रिय का पूर्ण विकास और सहायक इंद्रिय का सद्भाव नहीं होता, इसलिए वे एकेन्द्रिय ही कहलाते हैं। उक्त विवेचन से दो निष्कर्ष निकलते हैं। पहला यह कि इंद्रिय-ज्ञान चेतन-इंद्रिय और जड़-इंद्रिय दोनों के सहयोग से होता है फिर भी जहां तक ज्ञान का सम्बन्ध है, उसमें चेतन-इंद्रिय की प्रधानता है। दूसरा निष्कर्ष यह है कि प्राणियों की एकेंद्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय-ये पांच जातियां बनने में दोनों प्रकार की इंद्रियां कारण हैं फिर भी यहां द्रव्येन्द्रिय की प्रमुखता है। एकेंद्रिय के अतिरिक्त भावेन्द्रिय के चिह्न मिलने पर भी वे शेष बाह्य इंद्रियों के अभाव में पंचेन्द्रिय नहीं कहलाते। मानस ज्ञान और संज्ञी-असंज्ञी इंद्रिय के बाद मन का स्थान है। यह भी परोक्ष है। पौद्गलिक मन के बिना इसका उपयोग नहीं होता। इंद्रिय-ज्ञान से इसका स्थान ऊंचा है। प्रत्येक इंद्रिय का अपना-अपना विषय नियत होता है, मन का विषय अनियत। यह सब विषयों को ग्रहण करता है। इंद्रिय-ज्ञान वार्तमानिक होता है, मानस-ज्ञान त्रैकालिक । इंद्रिय-ज्ञान में तर्क-वितर्क नहीं होता, मानस-ज्ञान आलोचनात्मक होता है। मानस-प्रवत्ति का प्रमुख साधन मस्तिष्क है। कान का पर्दा फट जाने पर कर्णेद्रिय का उपयोग नहीं होता, वैसे ही मस्तिष्क की विकृति हो जाने पर मानस-शक्ति का उपयोग नहीं होता। मानसज्ञान गर्भज और उपपातज पंचेन्द्रिय प्राणियों के ही होता है। इसलिए उसके द्वारा प्राणी दो भागों बट जाते हैं-संज्ञी और असंज्ञी या समनस्क और अमनस्क । द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों में आत्म-रक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003092
Book TitleJain Darshan me Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages112
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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