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________________ २७ जीवन-निर्माण पर्याप्ति के सिवाय शेष सभी की समाप्ति अन्तर्-मुहूर्त से पहले नहीं होती। स्वयोग्य पर्याप्तियों की परिसमाप्ति न होने तक जीव अपर्याप्त कहलाते हैं और उसके बाद पर्याप्त । उनकी समाप्ति से पूर्व ही जिनकी मृत्यु हो जाती है, वे अपर्याप्त कहलाते हैं। यहां इतना-सा जानना आवश्यक है कि आहार, शरीर और इंद्रिय-इन तीन पर्याप्तियों की पूर्ण रचना किए बिना कोई प्राणी नहीं मरता। जीवों के चौदह भेद और उनका आधार जीवों के निम्नोक्त चौदह भेद हैंसूक्ष्म एकेन्द्रिय के दो भेद अपर्याप्त और पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय के दो भेद अपर्याप्त और पर्याप्त द्वीन्द्रिय के दो भेद अपर्याप्त और पर्याप्त त्रीन्द्रिय के दो भेद अपर्याप्त और पर्याप्त चतुरिन्द्रिय के दो भेद अपर्याप्त और पर्याप्त असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय के दो भेद अपर्याप्त और पर्याप्त संज्ञी पञ्चेन्द्रिय के दो भेद अपर्याप्त और पर्याप्त पर्याप्त और अपर्याप्त की संक्षिप्त चर्चा करने के बाद अब हमें यह देखना चाहिए कि जीवों के इन चौदह भेदों का मूल आधार क्या है ? पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों जीवों की अवस्थाएं हैं। जीवों की जो श्रेणियां की गई हैं उन्हीं के आधार पर ये चौदह भेद बनते हैं। इनमें एकेन्द्रिय जीवों के सिवाय सूक्ष्म और बादर ऐसा भेदकरण और किसी का नहीं है, क्योंकि एकेन्द्रिय के सिवाय और कोई जीव सूक्ष्म नहीं होते। सूक्ष्म की कोटि में हम उन जीवों को परिगणित करते हैं, जो समूचे लोक में जमे हुए होते हैं, जिन्हें अग्नि जला नहीं सकती; तीक्ष्ण से तीक्ष्ण शस्त्र छेद नहीं सकते ; जो अपनी आयु से जीते हैं और अपनी मौत से मरते हैं, और जो इंद्रियों द्वारा नहीं जाने जाते । प्राचीन शास्त्रों में 'सर्वं जीवमयं जगत्' इस सिद्धांत की स्थापना हुई, वह इन्हीं जीवों को ध्यान में रखकर हुई है। कई भारतीय दार्शनिक परम ब्रह्म को जगत्-व्यापक मानते हैं, कई आत्मा को सर्वव्यापी मानते हैं और जैन-दृष्टि के अनुसार इन सूक्ष्म जीवों से समूचा लोक व्याप्त है। सबका तात्पर्य यही है कि चेतना-सत्ता लोक के सब भागों में है। कई कृमि, कीट सूक्ष्म कहे जाते हैं, किन्तु वस्तुत: वे स्थूल हैं, वे आंखों से देखे जा सकते हैं। साधारणतया न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003092
Book TitleJain Darshan me Tattva Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages112
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size5 MB
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