________________
८४ तमसो मा ज्योतिर्गमय
वस्तुतः अपने संचित कुसंस्कारों एवं दुष्कर्मों से जूझना और उन्हें उखाड़ फेंकने का प्रबल पुरुषार्थ आत्मबल के बिना नहीं हो सकता। दूसरों से लड़ने की अपेक्षा अपने दुरात्मा बने हए आत्मा से लड़ना तथा आन्तरिक शत्रुओं को परास्त करना महादुष्कर है । आत्मालोचना, आत्मनिन्दा, गर्दा, आत्मनिरीक्षण, अनुप्रेक्षण एवं आत्मशोधन के मोर्चे पर लड़ना और प्रतिक्षण सावधान रहकर विजय प्राप्त करना अतीव कठिन है। ऐसी लड़ाई प्रचण्ड आत्मबल के सहारे ही लड़ी जा सकती है। मृगापुत्र का संकल्प : आत्मबल का परिचायक
मृगापुत्र ने जब मुनि दीक्षा लेने का संकल्प किया, तब उसके पिता ने उसे समझाया कि “पंच महाव्रतों का पालन करना, जीते जी लोहे के चने चबाना है । नंगे पैर अप्रतिबद्ध विहार करना, निर्दोष कपोतवृत्ति से भिक्षा करके निर्वाह करना, केशलोच करना, बीमार होने पर उचित औषधोपचार न मिलने का कष्ट तथा बाईस प्रकार के परीषह एवं नाना उपसर्ग सहना अत्यन्त दुष्कर है, इसलिए तुम गृहस्थाश्रम में ही रहकर अपना जीवन सुखपूर्वक बिताओ।"
इस पर मृगापुत्र ने जो उत्तर दिया, वह उसके प्रबल आत्मबल का परिचायक है। उसने पिता से कहा कि नारक के भव में नरक में मैंने जितने भयंकर कष्ट उठाए हैं, मरणान्तक पीड़ा सही है, घोर यातनाएँ झेली हैं। उनकी अपेक्षा महाव्रत-पालन, केशलोच आदि के कष्ट तो कुछ भो नहीं हैं । जन्म-मरण के भयंकर दुःखों के समक्ष ये दुःख तो उनके पासंग के बराबर भी नहीं हैं । अतः मैं इन दुःखों को सहर्ष सहन करूंगा, आत्मज्योति जगाऊँगा, मुक्ति के प्रशस्त आग्नेय पथ पर मैं हंसते-हंसते चलूँगा। मैं इन जन्म-मरण के दुःखों और उनके स्रोत अशुभ कर्मों से अत्यन्त घबरा उठा हैं । अब इस भव में उनका अन्त करना ही मेरा लक्ष्य है, उसके लिए चाहे जितने कष्ट सहने पड़ें, मैं धैर्यपूर्वक सहूँगा। जंगल में स्वच्छन्द विचरण करने वाले मृग को बीमार पड़ने पर कौन औषध देता है, कौन आहार-पानी देता है, प्रकृति पर निर्भर रहकर वह स्वतः ही स्वस्थ हो जाता है, स्वयं आहार पानी लेने लगता है। इसी प्रकार मैं भी मृगचर्या करूंगा।' आत्मबल :म्पन्न व्यक्ति का जीवन प्रतिस्रोतगामी
यह हैं आत्मबल के स्वर ! जो अपने स्वार्थों, इच्छाओं और आशा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org