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________________ आत्मबल : सर्वतोमुखी सामर्थ्य का मूल ८३ और दुष्टता को आत्म-शक्ति का रूप कतई नहीं माना जा सकता। ऐसे अनैतिक आतंक में यत्किचित् सामर्थ्य भी है तो वह विनाश का है, सृजन का बिल्कुल नहीं । सृजन का तत्व जिसमें हो, वह व्यक्ति आत्मबल की उपलब्धि प्राप्त कर सकता है । दूसरों को हानि पहुँचाने और अनैतिक ढंग से आक्रमण करने वाले का बल उसी के लिए अभिशाप सिद्ध होता है, पापकर्मबन्ध के फलस्वरूप वह अनेकानेक जन्मों तक दुःखों की भट्टी में जलता रहता है, उसे उन कुगतियों और अशुभ योनियों में आत्मस्वरूप एवं मोक्षमार्ग का सद्बोध नहीं मिलता। ध्वंस को शस्त्र बनाकर चलने वाले का जीवन-दीप सदैव अस्थिर, भयाक्रान्त और व्याकुल रहता है, आत्मबल तो उसमें नाममात्र को नहीं है । माचिस की तीली अग्निकाण्ड तो रच सकती है, परन्तु उसी आग में जलकर उसे भी समाप्त होना पड़ता है। पागल कुत्ता कई प्राणियों को काट सकता है, परन्तु खैर उसकी भी नहीं है। दुष्टता के विरुद्ध उभरे आक्रोश रूप प्रकृति-दण्ड से उसे मृत्यू-मुख में जाना ही पड़ता है, जबकि उसके द्वारा काटे हुए लोग तो दवा-उपचार से ठीक भी हो सकते हैं । यह निःसंदेह समझ लेना चाहिए कि जो लोग दुष्टता के सहारे बलिष्ठ बनने का प्रयत्न करते हैं, उनका वह अवलम्बन न तो आसान होता है और न ही सफल । दुष्टता अपनाने से सम्मान और सहयोग दोनों से वे वंचित हो जाते हैं तथा अपने चारों ओर घृणा, तिरस्कार और धिक्कार का ताना-बाना बुन लेते हैं । अन्त में, वे मित्रविहीन होते चले जाते हैं । अतः कुटिलता का आश्रय लेकर दूसरों को दबाने-सताने का ध्वंसात्मक सामर्थ्य आत्मशक्ति से कोसों दूर है । जिसमें सृजन का सामर्थ्य है, उसी की अन्तरात्मा बलवान है। आत्मबल सम्पन्न व्यक्ति का भगीरथ पराक्रम आत्मबल के धनी व्यक्ति के लिए शास्त्रकार कहते हैं"अप्पाणमेव जज्झाहि, कि तं जुज्झेण बज्झओ।"1 'हे साधक ! यदि तुझे आत्मबल सम्पन्न बनना है तो अपनी आत्मा से अर्थात्-आत्मा में संचित कुसंस्कारों, दुष्कर्मों, विषय वासनाओं, रागद्वष, मोह, घृणा, मत्सर, काम तथा क्रोधादि कषाय रूप विकारों से लड़, बाह्य शत्रुओं से लड़ने से क्या मतलब ?' १ उत्तराभ्ययन सूत्र अ. ६ गा. ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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