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________________ ८२ तमसो मा ज्योतिर्गमय समुद्घात से भी अपने शरीर को समग्र जम्बूद्वीपव्यापी बना सकता है। सारे जगत से अकेला अहिंसक प्रतिकार द्वारा जझ कर विजयी बन सकता है । आत्मबल सम्पन्न व्यक्ति के सामने चाहे जितनी भयंकर तोपे, मशीनगर्ने, प्रचण्ड भौतिक शक्ति सम्पन्न सेना खड़ी हों, वह निर्भय होकर अकेला डट जाता है और भौतिक बल सम्पन्न व्यक्ति को झुका देता है। आत्मबल से सम्पन्न व्यक्ति प्रत्येक अवरोध, सकट और प्रतिकूल परिस्थिति से जझते हुए बिना थके, बिना रुके प्रयत्नरत रहता है। जितने भी महत्वपूर्ण काय हैं, उनकी सफलता पूर्णतया उसी आत्मबल पर निर्भर रहती है । आन्तरिक प्रखरता से ही शक्ति का उद्गम स्रोत उमड़ता है । शरीर और मन-मस्तिष्क में तो उसका केवल प्रवाह चलता है। व्यक्तिगत जीवन की गरिमा भी उस आत्मबल पर निर्भर है, जिसमें आदर्श और सत्संकल्प का समान रूप से समन्वय होता है । सदुद्देश्य में भाव भरी दृढ़ श्रद्धा और कर्तव्य-पालन में प्रचण्डनिष्ठा का समन्वय होने से उस आत्मबल का प्रादुर्भाव होता है । उसी के बल पर व्यक्ति लोभ और क्षोभ, द्रोह और मोह, द्वष और रोष, भय और दुर्जय के अवरोधों को एक झटके में दूर हटा देता है, और उच्चस्तरीय आदर्शों को स्थापित कर पाता है। अपने अनुकरणीय आदर्शों को छोड़ जाने वाले या महत्वपूर्ण कार्यों को कर गुजरने वाले व्यक्तियों के व्यक्तित्व का विश्लेषण किया जाए तो उन सभी में आत्मबल की प्रखरता ही मालूम होगी। लौकिक जीवन में यशस्वी और जननायक बनने की आकांक्षा भी आत्मबल के बिना पूर्ण नहीं हो सकती । समाजसेवा की परमार्थ-परायणता गहरी और उच्चस्तरीय तभी होगी, जब व्यक्ति में आत्मबल होगा। ये लोग आत्मबल प्राप्त नहीं कर सकते तिकड़मबाजी से कुछ समय के लिए सस्ती वाहवाही की लूट हो सकती है, परन्तु उतने भर से यश-कीति और प्रतिष्ठा चिरस्थायी नहीं हो सकती, क्योंकि उसके पीछे आत्मशक्ति नहीं है। धूर्तता के बल पर समेटी हुई प्रशंसा और प्रतिष्ठा में स्थायित्व नहीं होता। __ आतंक, अन्याय-अनीति, अत्याचार और धूर्तता का प्रश्रय बेकर आतंकवादी, दुष्ट, दुरात्मा, धूर्त एवं अत्याचारी भी बलिष्ठता का ढिंढोरा पीटते देखे जाते हैं । कुछ दुर्बल प्रकृति के लोग उनकी उद्दण्डता से डरते, घबराते और नतमस्तक होते देखे गए हैं। परन्तु इस प्रकार की उद्दण्डता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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