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आत्मबल : सर्वतोमुखी सामर्थ्य का मूल
"सुने री मैंने निर्बल के बलाम ।
अम्बल, तपबल और बाहुबल, चौथो है बल दाम । 'सूर' किशोर कृपा ते सब बल, हारे को हरिनाम ॥"
इसका भावार्थ यही है कि अन्य बलों के साथ यदि परमात्मबल - आत्मबल नहीं है, तो वह निर्बल है । उसके शरीरबल, बुद्धिबल, तपोबल, बाहुबल या धनबल आदि आत्मबल के अभाव में निरर्यक हैं । इतिहास साक्षी है कि आश्चर्य चकित कर देने वाली अति महत्वपूर्ण सफलताएँ न तो तन-मन-धन आदि साधनों के सहारे प्राप्त हुई हैं और न ही बुद्धिकौशल से । वे प्राप्त हुई हैं आत्मबल से ।
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महात्मा गाँधीजी शरीर से बहुत दुर्बल थे, उनका वजन केवल ९६ पौंड था । शारीरिक दृष्टि से उनका सामर्थ्य उपहासास्पद मालूम होता था । उन्हें कोई भी किशोर दौड़ने या लड़ने की चुनौती दे सकता था । किन्तु जिन्होंने उन्हें भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम के अजेय योद्धा के रूप में देखा है, वे जानते हैं कि उनमें कितना आत्मबल था, कितनी कार्यक्षमता, सूझबूझ, संकल्प शक्ति और सामर्थ्य थी । उनका व्यक्तित्व हिमालय से भी उन्नत और समुद्र से भी विस्तृत एवं गम्भीर था । उनके सुदृढ़ चरित्र का स्रोत उनका सुदृढ़ आत्मबल ही था । उनकी प्रचण्ड आत्मशक्ति की टक्कर ब्रिटिश सरकार से हुई और इस कुश्ती में वे ही विजयी हुए । धनबल, तनबल और साधनबल से भी यह युद्ध जीतना कठिन था । बड़े से बड़े पहलवान के लिए भी इतनी बड़ी कुश्ती लड़ना कठिन था । किन्तु गाँधीजी के आत्मबल ने भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में जो भूमिका अदा की, उससे स्पष्ट है कि आत्मबल संसार के सब बलों का सरदार है । इससे बढ़कर कोई बल इस संसार में नहीं है ।
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जैन सिद्धान्त की दृष्टि से देखें तो भी ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य, इन चारों में से प्रत्येक आत्मा भी अनन्त अनन्त शक्ति से सम्पन्न है । अर्हत, केवली, तीर्थंकर एवं सिद्ध परमात्मा को आत्मा के ये अनन्त चतुष्टय प्राप्त होते हैं । अनन्त आत्मिक बल - वीर्य से सम्पन्न होने पर तो आत्मा में इतनी सामर्थ्य हो जाती है कि वह चाहे तो सारे ब्रह्माण्ड को हिला सकता है । वैसे ही उसे शरीर वज्र - ऋषभनाराव - संहनन एवं सम चतुरस्र संस्थान से युक्त मिलता है । और तो और आत्मिक शक्ति से सम्पन्न मुनि चाहे तो पलाकलब्धि से चक्रवर्ती की समग्र सेना को चर कर सकता है । वैक्रियादि
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