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________________ ८० तमसो मा ज्योतिर्गमय यदि खड्ग चलाने की कुशलता और उचित सूझबूझ से अभ्यस्त मस्तिष्क नहीं है, तो भी वह शस्त्र निरर्थक साबित होगा। साथ ही एक महत्वपूर्ण तथ्य और विचारणीय है कि यदि उक्त व्यक्ति में योद्धा के योग्य साहस, शौर्य, धैर्य एवं आत्मविश्वास नहीं है, उसके अन्तःकरण में भीरुता और उदासीनता है, देशभक्ति नहीं है, तो ऐसी आन्तरिक दुर्बलता के कारण तलवार की अच्छाई और कलाई की मजबूती भी उसके लिए कारगर सिद्ध न होगी। अन्तर् में घबराया हुआ, कांपता, डरता और लड़खड़ाता सैनिक युद्ध में कभी विजयी नहीं हो सकता। बाह्ययुद्ध में विजय के लिए साहस, शौर्य, आत्मविश्वास आदि आत्मबल के निकट सहयोगी तत्व आवश्यक हैं, इसी प्रकार आन्तरिक युद्ध के लिए तो उससे भी अधिक आत्मबल एवं उसके सहयोगी तत्वों का होना आवश्यक है । इनके बिना काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर, दम्भ, ईर्ष्या, द्वेष, वैर-विरोध, आसक्ति, ममल आदि आन्तरिक शत्रुओं से जूझना और तप, जप, सुध्यान, महाव्रत, समिति, गुप्ति, समत्व, क्षमा आदि शस्त्रों से उन विचारों पर प्रहार करना और उन्हें परास्त करना अतीव कठिनतर होगा । उन विकार रिपुओं पर विजय पाना तो और भी दुष्कर होगा। निष्कर्ष यह है कि तनबल, साधनबल आदि होते हुए भी व्यक्ति यदि आत्मबलहीन है, अपने विकारों से जूझने में डरता-कांपता है, घबराता है, साधनों का समुचित उपयोग करने में उसका मस्तिष्क अभ्यस्त नहीं है, उसे अपने पर विश्वास नहीं है, संशयी ओर संकोची है, अथवा अन्यमनस्कता, उदासी, निष्क्रियता, प्रमाद, आलस्य और दीर्घसूत्रता बनकर आन्तरिक दुर्बलता छायी है, तो ऐसा व्यक्ति बहुत कुछ कर सकने योग्य होते हुए भी कुछ नहीं कर सकेगा । उसकी बहुमूल्य जीवन सम्पदा पूर्वोक्त आन्तरिक प्रखरता के अभाव में यों ही नष्ट हो जाएगी। समस्त शक्तियों का स्रोत आत्मबल वस्तुतः मनुष्य की सभी शक्तियों का स्रोत-पावर हाउस-आत्मबल है । वास्तविक बलवान वही है, जिसकी अन्तरात्मा बलिष्ठ है। समर्थता और दुर्बलता का यथार्थ मूल्यांकन इसी आन्तरिक सबलता और निर्बलता को देख कर किया जाता है। आत्मबल के बिना अन्य सब बल व्यर्थ हैं, बल्कि अनर्थकर हैं । हिन्दी के महान कवि सूरदास ने अपने एक भजन में इस तथ्य को उजागर करते हुए कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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