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________________ आत्मबल : सर्वतोमुखी सामर्थ्य का मूल ७६ जैसी क्षमताएँ प्राप्त करना ही पर्याप्त समझा जाता है। किन्तु यह सब उथली सतह पर किया जाता है। शरीर की क्रिया और मन की सुखेच्छा का ही इसमें समावेश रहता है। उच्च स्तरीय भाव, अध्यवसाय, आत्मउत्थान, कर्म, आत्मबल, वीर्य और आत्म-पराक्रम (पुरुषार्थ), साहस आदि का समावेश होता तो अवश्य ही यह प्रयत्न आकाश में स्थित सूर्य-चन्द्र के समान आत्मा को चमकाता; आत्मा का यह अद्भुत चमत्कार है। __ऊपरी सतह पर जो हलचलें होती हैं, वे अपने प्रयत्न और साधनों के अनुरूप स्वल्प परिणाम तो उत्पन्न करती हैं, किन्तु विशिष्ट और आत्मानुलक्ष्यी परिणाम उत्पन्न नहीं कर पातीं । मोटर का इंजिन खराब हो, पेट्रोल की टंकी भी खाली हो तो उस मोटर को धक्का देकर कुछ दूर तक ले जाया जा सकता है, किन्तु उस मोटर से अभीष्ट मंजिल तक नहीं पहुँचा जा सकता । उस मोटर से तीव्रगति से अभीष्ट मंजिल का लाभ तभी मिल सकता है, जबकि उसका इंजिन सही हो और पेट्रोल भी पर्याप्त हो । इसी प्रकार शरीर और मन के पूर्वोक्त समन्वित प्रयत्नों से जीवन की गाड़ी को कुछ सीमा तक धकेला जा सकता है, परन्तु चरम लक्ष्य तक द्रतगति से पहुँचने के लिए तो गहन अन्तराल का दृढ़ आत्मबल होना आवश्यक है । दृढ़ आत्मबल होगा, वहाँ तनबल, धनबल, साधनबल आदि भौतिक बल के अभाव में भी सफलता मिलेगी। दृढ़ आत्मबल के साथ धैर्य, साहस, उत्साह, अदम्य संकल्प, आत्मविश्वास आदि तो स्वतः आ जुटते हैं । ये सभी उच्च स्तरीय तत्व शरीर और मन के क्षेत्र से ऊपर के हैं। वे अन्तःकरण की गहन गुफा में भरे हैं, वहीं से उभर कर बाहर आते हैं । यदि अन्तःशक्ति का वह पावर हाउस प्रसुप्त स्थिति में पड़ा हो तो प्रत्येक प्रयास उथले स्तर का रहेगा और उसका परिणाम भी स्वल्प ही निकलेगा। बाह्ययुद्ध की तरह आन्तरिक युद्ध में भी आत्मबली विजयी यह एक जाना माना तथ्य है कि युद्ध के मैदान में लड़ने के लिए पैनी तलवार काम देती है और सिर भी उसी से कटते हैं । परन्तु इतने में ही युद्धकौशल मान बैठना अज्ञानता होगी। तलवार चलाने के लिए योद्धा की कलाई की मजबूती और मस्तिष्क की अभ्यस्त क्रिया कुशलता भी आवश्यक होती है। अगर ये दोनों चीजें नहीं होंगी तो कीमती और पैनी तलवार भी कुछ काम न कर सकेगी। कमजोर भुजाएँ न तो तलवार का भार सह सकेंगो और न ही यथास्थान प्रहार कर सकेंगो । इतना ही नहीं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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