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७६ तमसो मा ज्योतिर्गमय व्यक्ति उच्च साधक भी पदलिप्सा, अधिकारलिप्सा, प्रसिद्धिलिप्सा एवं प्रशंसालिप्सा की चाण्डाल-चौकड़ी के फेर में पड़ जाते हैं। यह सार्वजनिक एवं आध्यात्मिक जीवन के लिए अभिशाप एवं सेवाक्षेत्र को कलुषित करने वाली है।
इसीलिए भगवान ने आत्मिक उन्नति के साधकों को सावधान करते हुए कहा है
'न लोगस्सेसणं चरे' 'साधक लोकषणा के चक्कर में न पड़े।'
जो साधक या लोकसेवक निःस्वार्थ या निःस्पृह भाव से लोकसेवा करता है, वह जनता को सम्यग्ज्ञान-सम्यग्दर्शन-सम्यक्चारित्र के पथ पर चलने की प्रेरणा-शिक्षणा देता है, उसकी प्रसिद्धि और प्रशंसा स्वतः ही होती है, लोग उसे पूजनीय-वन्दनीय समझते हैं। उसे अपने जीवन में सहज ही आनन्द-उल्लास, स्फूर्ति और तप-त्याग करने का आत्मबल प्राप्त होता है।
अतः कामैषणा, वित्तषणा और लोकषणा को हेय एवं आत्म-विकास में बाधक समझकर इनका परित्याग करना चाहिए । प्रगति के लिए प्रबल आकांक्षा और पुरुषार्थ आवश्यक
अतः आत्मिक प्रगति के लिए पूर्वोक्त अवरोधक तत्वों से दूर रहकर चलना आवश्यक है। परिस्थितियों की प्रतिकूलता और साधनों की कमी से हताश नहीं होना चाहिए, क्योंकि ये दोनों चीजें प्रगति में बाधक या अवरोधक नहीं है, बशर्ते कि व्यक्ति में प्रबल आकांक्षा हो और अपने लक्ष्य के अनुकूल पुरुषार्थ हो । जिसके पास ये दो साधन हैं, उसकी आत्मिक उन्नति को कोई भी रोक नहीं सकता।
यों तो उन्नति की आकांक्षा प्रायः सभी में होती है, परन्तु लालसा का रूप नहीं होनी चाहिए । लालसा तो एक लहर के समान है, जो आती है, और बाद में विलीन हो जाती है। उसकी आकांक्षा एक व्रत या संकल्प के समान सुदृढ़ और अनन्य होनी चाहिए । आज विद्वान बनने की आकांक्षा है, कल समाजसेवा करने की, कभी एकान्त सेवन की और कभी राजनेता बनने की, इस प्रकार की परिवर्तित होने वाली तरंगें या विभिन्न वृत्तिया आत्मिक प्रगति के लिए घातक हैं। आत्मिक प्रगति की साधना के लिए सर्व.
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