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आध्यात्मिक प्रगति के मूलाधार ७५ तृष्णा और अहंता की प्रवृत्तियां प्रबल होने पर इन एषणाओं के रूप में परिलक्षित होती हैं । इन्हें क्रमशः ताड़का, सूर्पणखा एवं सुरसा की उपमा दी जाती है । कामुकता की वृत्ति ही कामैषणा को जन्म देती है। यौनाचार की कल्पना और उसकी क्रियान्विति में उलझा हुआ मन-मस्तिष्क अपनी महत्वपूर्ण क्षमता को ऐसे जाल में फंसा देता है, जिसमें पाना तो कण भर है, किन्तु गवाना मन भर है । अतः यौनाचार लिप्सा जीवन-रस को -- आत्मा के ओजस, तेजस् एवं वर्चस् को क्षणिक आवेश एवं उन्माद के वशीभूत होकर निचोड़ देती है। फिर जब आत्मा में खोखलापन बच जाता है तो उसके बल पर आत्मिक प्रगति कैसे हो सकती है ? कामैषणा को पुत्रषणा का नाम देकर लोग अपने आत्मिक गुणों का अपव्यय करते हैं, आत्मशक्ति के स्रोत का ह्रास करते हैं । अतः कामैषणा प्रथम अवरोध है।
दूसरा अवरोध है-वित्तषणा । येन-केन-प्रकारेण धन कमाने की धुन मनुष्य को आत्म-चिन्तन आत्म-निरीक्षण आदि से हटा देती है। फिर अनुचित तरीकों से कमाए हुए धन का उपयोग जब मनुष्य विलासिता में, दुर्व्यसनों में, उद्धत प्रदर्शनों में, अथवा फिजूलखर्ची में करता है, तब न तो भौतिक प्रगति होती है और न ही आत्मिक प्रगति । अमीरी का रहन-सहन, दिखावा, दम्भ और भड़कीला जीवन आत्मा को उठाता नहीं, गिराता है। ऐसे लोग अपनी सन्तान को जाने-अनजाने परावलम्बी, उद्धत, अहकारी, आलसी एवं दुर्व्यसनी बनाते हैं ।
तीसरा अवरोध है-लोकैषणा । धन के क्षेत्र में जितनी आपा-धापी, छीना-झपटी, लुट-खसोट होती है, उससे भी अधिक आपा-धापी होती है, लोकसेवा के क्षेत्र में । मनुष्य की लोकेषणा उसे लोभो, प्रतिष्ठा और प्रशंसा का भूखा, आडम्बरशील एवं प्रदर्शन-प्रिय बना देती है। अनावश्यक ठाठबाट, प्रदर्शन आदि की विडम्बना के जंजाल में जितनी शक्ति लगाई जाती है, अगर उससे चौथाई शक्ति भी चुपचाप निःस्वार्थ भाव से लोकसेवा में लगाई जाए तो मनुष्य आत्मा की शक्तियों को शीघ्र विकसित करके उन्नति के शिखर पर पहुँच सकता है। लोकैषणाग्रस्त व्यक्ति यश, सम्मान, प्रशंसा
और प्रसिद्धि के चक्कर में पड़ कर गुणो लोगों को, सच्चे लोकसेवकों और साधकों को बदनाम करने, नीचा दिखाने और मिथ्या आलोचना करने में लग जाते हैं। ऐसे व्यक्ति स्टेज-कौशल, वाचालता, संस्थाबाजी एवं नेतागीरी के सहारे शीघ्र प्रसिद्धि पाने की धुन में रहते हैं । लोकेषणा-तत्पर
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