________________
७४ तमसो मा ज्योतिर्गमय दुर्गुण ही अवरोध उत्पन्न करते हैं । आत्म-प्रगति में बाधक एवं अवरोधक तत्व तो अधिकतर स्वयं उत्पन्न किये जाते हैं। इन अवरोधी बलों को बुद्धि, परिश्रम, समय, विश्वास और मनोयोग लगाकर यदि बड़ी मात्रा में एकत्रित एवं प्रयुक्त न किया जाए तो आत्मिक प्रगति-पथ पर ब्यक्ति अग्रसर और गतिमान होने लगेगा। यदि पतनोन्मुख पापकर्म बन्धक मन-वचन-काया की निम्नगामो प्रवृत्तियों से दूर एवं उदासीन रहा जाए. तो आत्मिक प्रगति क्रम का लाभ उठाया जा सकता है। दुर्भाग्य से आज उपार्जन विधायक सद्गुणों का नहीं, विनाशक तत्वों का किया जाता है । वे ही मानव की आत्मिक प्रगति में ब्रेक का काम करते हैं।
जैसे भौतिक जगत का नियम है कि हर वस्तु को पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति अपनी ओर खींचती है, जिससे वह ऊपर से नीचे की ओर गिरती है, जबकि आत्मिक जगत का यह नियम है कि परम-आत्मा प्रत्येक आत्मा को अपनी ओर खींचता है, जिससे वह नीचे से ऊपर उठती और आगे बढ़ सकती है। अगर मनुष्य आत्मा की ऊर्ध्वगतिशीलता को अपना ले, और उस पर से दुर्गुणों, कुसंस्कारों और कषायादि विकारों का लेप हटा ले तथा आन्तरिक दुर्बलताओं को दूर कर दे, तो कोई कारण नहीं कि वह द्रतगति से आत्मिक प्रगति के उच्च शिखर पर न पहुँच सके ।
विपरीत परिस्थितियाँ, साधनों की कमी, साथियों का सहयोग तथा प्रतिरोध आदि मिलकर आत्मिक प्रगति में बाधक बन जाते हैं, एकान्ततः यह सोचना भ्रांतिमूलक है। सबसे बड़ी कठिनाई तो अपने गुण, कर्म, स्वभाव की, यानी व्यक्तित्व की दुर्बलताएँ या त्रुटियाँ हैं। अभीष्ट पुरुषार्थ न जुटाना, तनिक-सी विघ्न बाधा या कठिनाई आते ही हिम्मत हार बैठना, एक रास्ता रुक जाने पर दूसरा न तलाशना, साथियों पर झल्लाना, सहृदय शुभ चिन्तक हितैषी मित्रों के साथ कट व्यवहार, दूसरों के दोष ढूंढना और उनकी कटु समीक्षा-निन्दा-बदनामी करना, जैसे व्यक्तिगत दोष-दौर्बल्य ही आत्मिक प्रगति में सबसे अधिक बाधक हैं। अपने प्रति पक्षपात और दूसरों के प्रति कठोरता-कड़ाई को नीति एक प्रकार की आत्मवंचना है, जो प्रगति को ठप्प कर देती है । आस्तिक प्रगति में अवरोधक तीन दुष्प्रवृत्तियाँ
आत्मिक प्रगति के पथ में अवरोध उत्पन्न करने वाली दुष्प्रवृत्तियों में तीन मुख्य हैं-कामैषणा, वित्तषणा और लोकेषणा । वासना, कामुकता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org