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________________ आध्यात्मिक प्रगति के मूलाधार ७३ प्रशंसा और प्रतिष्ठा का ढिंढोरा पीटना, दूसरों को दबाना-सताना, क्रूरता, कठोरता, परदमन आदि अहंकार के ही विविध रूप हैं, जो अवसरानुकूल अपना रोल अदा करके आत्मिक प्रगति के अवरोधक बन जाते हैं, अहंकार मनुष्य को स्थगनशील एवं दीर्घसूत्री बना देता है । अहं प्रधान व्यक्ति जरा-सी उन्नति के फूल हाथ में आते ही मदोन्मत्त बन जाता है, गर्ववश दूसरों पर रौब जमाने, दूसरों को दबाने और कठोर व्यवहार करने लग जाता है । उसकी भावनाएं, स्थितियाँ, चालढाल आदि सब विपरीत हो जाती हैं । उसमें विनम्रता के बदले कठोरता और कर्कशता आ जाती है । अहंकारी व्यक्ति लोगों के सामने डींग हाँकता रहता है कि वह जब चाहेगा, तब उन्नति के शिखर पर जा पहुंचेगा । कार्य प्रारम्भ करने के बाद बढ़ता ही चला जाएगा, किन्तु बढ़ना तो दूर रहा, वह उठ कर खड़ा ही नहीं होता, न ही ऊपर चढ़ने के लिए क्रियाशील होता है । उत्तराध्ययन सूत्र की भाषा में भणंता अकरता य बंध-मोक्ख-पइण्णिणो। वायावीरियमेत्तेण समासासेंति अप्पयं ॥ "वे केवल कहते हैं, बन्धन से मुक्तिप्राप्त करने की बड़ी-बड़ी प्रतिज्ञा करते हैं, किन्तु वे करते कुछ नहीं, क्रियाशील नहीं होते । वाणी की वीरता से अपने आपको या अपनों को आश्वासन देते रहते हैं।" ऐसी दशा में उनके जीवन के सारे अवसर, क्रिया करने के सारे मौके चले जाते हैं, एवं उन्नति की सभी सम्भाबनाएं समाप्त हो जाती हैं। अहंकार के सिवाय उसके पल्ले कुछ भी नहीं पड़ता। आत्मिक प्रगति के लिए पर्याप्तियां प्राप्त होने पर भी अवरोध क्यों ? ____ मनुष्य गति ही ऐसी गति है, जिसमें मनुष्य को आत्मिक प्रगति के लिए १० प्राण और ६ पर्याप्तियां प्रायः मिलती हैं। श्रोत्रेन्द्रिय बल प्राण आदि पाँचों इन्द्रियबल प्राण, मन-वचन-काय बल प्राण, श्वासोच्छ्वास और आयुष्यबल प्राण, ये १० प्राण तथा आहार, शरीर (मानव-तन), इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा एवं मनःपर्याप्ति, ये ६ पर्याप्तियां प्रायः हर मानव को प्राप्त होती हैं। इतने सब साधन प्राप्त होते हुए भी मनुष्य की प्रगति में अवरोध क्यों खड़ा हो जाता है ? इसका सामान्य उत्तर यह है कि जैसे भौतिक जगत में वायु का दबाब गति का अवरोध करता है वैसे ही आत्मिक जगत में आन्तरिक दुर्बलता अर्थात् मनुष्यों के अपने दोष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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