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________________ ७२ तमसो मा ज्योतिर्गमय आत्मा का स्वभाव सदैव ऊर्ध्वगति करने का है, किन्तु उस पर जब बौद्धिक, मानसिक आदि विकारों का बोझ अधिक डाल दिया जाता है, तब वह दब जाता है, अधोगति करने लगता है। चेतना की प्रगति का लक्षण यह है कि वह क्रमशः ऊर्ध्वगति करता है, स्वरूप-स्वभाव में रमण करता है, परभावों से, विभावों से दूर रहता है। ज्ञान-दर्शन-चारित्र के उत्कर्ष से आत्मा को सच्चिदानन्दमय बना लेता है। आत्मिक प्रगति में बाधक एवं अवरोधक कारण ____ आत्मिक प्रगति और भौतिक प्रगति का मार्ग, दृष्टि एवं पुरुषार्थ की दिशा भिन्न-भिन्न है। आत्मिक प्रगति करने के लिए सर्वप्रथम आन्तरिक और बाह्य अवरोधों को दूर करना आवश्यक है। पंचेन्द्रिय-विषय-वासनाओं, कषाय-कल्मषों एवं राग-द्वेष-मोह की उत्कटता के रहते व्यक्ति की आत्मिक प्रगति होनी कठिन है। ये ही आन्तरिक अवरोध हैं। जैन परिभाषा में जिन्हें आस्रव कहा जाता है, वे आत्मिक प्रगति में अवरोधक हैं । संक्षेप में, मिथ्यात्व, अविरति (हिंसादि पंच पाप) प्रमाद, कषाय और योग मन वचन काया की अशुभ प्रवृत्ति), ये पांच आस्रव के कारण हैं। इन्हीं का विस्तार होने से आत्मा कर्म-कल्मषों से भारी हो जाती है। जिनके मुख्य बीज हैंराग और द्वेष । अज्ञान और मोह इनके प्रादुर्भूत होने में प्रधान कारण हैं । अज्ञान के कारण मनुष्य आत्मिक प्रगति के लिए उपयुक्त क्षेत्र, मार्ग, दष्टि या पुरुषार्थ की दिशा का चयन एवं निर्णय नहीं कर पाता । फलतः अपनी भावना और क्षमता में सन्तुलन नहीं बना पाता । उसे श्रेय और प्रेय (पाप) का बोध नहीं होता । कहा भी है "अन्नागी कि काही, किंवा नाही य सेय-पा वर्ग !" बेचारा अज्ञानी मोहान्धकार से आवृत होने के कारण क्या पुरुषार्थ कर सकता है, अथवा श्रेय और पाप को कैसे जान सकता है ? अज्ञान से आक्रान्त अदूरदर्शी व्यक्ति न तो अपने लक्ष्य को देख सकता है और न ही तदनुरूप मार्ग का चयन एवं कार्यपद्धति का निर्माण कर सकता है । मोह के कारण अहंकार, लोभ, एषणा आदि नाना विकार प्रादुर्भूत होते हैं, जे आत्मिक प्रगति के साधक के चरण की गति अवरुद्ध कर देते हैं। ये साधव की दृष्टि से बचकर बहरूपिया बन जाते हैं और उसकी जड़ काटते रहते हैं । ये आत्मिक प्रगति के भयंकर शत्रु हैं। अभिमान, गर्व, अस्मिता, दम्भ अविनय, वाचालता, कठोरता, मिथ्या आकांक्षा, शेखी बघारना, अपन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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