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________________ आध्यात्मिक प्रगति के मूलाधार ७१ जुड़ी होने पर भी अस्तित्व की दृष्टि से भिन्न है। किसी रुग्ण व्यक्ति में भी विश्वमैत्री, सहृदयता, आत्मीयता आदि उदात्त भावनाएं हो सकती हैं और किसी स्वस्थ एवं सशक्त व्यक्ति में कठोरता, क्रुरता, स्वार्थपरता एवं निर्दयता हो सकती है । अतः बुद्धि से चेतना की स्थिति भिन्न समझनी चाहिए। बुद्धि वैभव भी एक प्रकार से भौतिक प्रगति के अन्तर्गत ही है। उसके कारण सांसारिक उपलब्धियाँ भले ही हस्तगत होती हों, किन्तु आध्यात्मिक उपलब्धियाँ हस्तगत नहीं होती। ____ अगर बौद्धिक प्रगति आध्यात्मिक प्रगति होती तो इस धरती पर एक-दूसरे को काटने-गिराने एवं हानि पहुँचाने की बात सर्वथा त्याज्य होती और स्नेह-सहयोग की उदार नीति अपना कर आगे बढ़ने में योगदान दिया जाता । इसी प्रकार पतन के प्रयास उत्थान के प्रयास होते। चेतना की प्रगति तो समूचे व्यक्तित्व को प्रभावित करके, अपने प्रभाव से भावना, विचारणा और साधना की धारा को उच्च स्तरीय बना देती है । चेतना का उत्कर्ष होने पर व्यक्ति की स्थिति कैसी होती है ? इसके लिए दशवकालिक सूत्र के चतुर्थ अध्ययन की गाथा १३ से १५ तक देखिये । नौवीं गाथा में इसका दिग्दर्शन कराया गया है सव्वभूयप्पभूयस्स सम्मं भूयाई पासो । मिहिआसवस्स दंतस्स पावकम्मं न बधइ ॥ जिस साधक ने आस्रवों का निरोध कर लिया है, और जो शान्तदान्त है, समस्त प्राणियों को आत्मतुल्य देखता है, वह सर्वभूतात्मभूत साधक पापकर्म का बन्धन नहीं करता। ऐसे उत्कृष्ट चेतना के धनी भावितात्मा का पुरुषार्थ अपनी चेतना को ही नहीं, सारे संसार को प्रभावित करता है। 'अप्पाणं भावेमाणे विहरइ' 'वह अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरण करता है'; के उद्घोष से शास्त्र उसकी साक्षी देते हैं। ऐसे महान् भावितात्मा 'तिनाणं तारयाणं, बुद्धाणं बोहयाणं और मुत्ताणं मोयगाणं' बनते हैं और इतिहास के पृष्ठों पर अमर रहकर चिरकाल तक संसार को अपनी प्रेरणा का प्रकाश देते रहते हैं। वह व्यक्ति अपने आप में तृप्त, आनन्दित एवं पूर्ण आत्मसुख से सन्तुष्ट, ज्ञान दर्शन से पूर्ण हो जाता है। दुर्भाग्य से भौतिक प्रगति को ही चेतना की प्रगति समझा गया, जो कि चेतना को अधोगति थी, उसे ही आवश्यक और महत्वपूर्ण समझा गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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