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७० तमसो मा ज्योतिगंयम मनुष्य हारा, थका, टूटा, खिन्न, चिन्तित और निराश दिखाई दे रहा है । खिन्न मनःस्थिति में गम और उदासी के निवारण के लिए मनुष्य शराब आदि व्यसन, व्यभिचार एवं अनाचार जैसे क्षुद्र उपायों का आश्रय लेते जा रहे हैं।
इन सब अवांछनीयताओं का कारण केवल एक ही उभर कर आता है-आत्मिक प्रगति की पहल किये बिना की गई भौतिक प्रगति, घोड़ागाड़ी में गाड़ी आगे और घोड़ा पीछे जोतने की तरह भयावह है । आत्मिक प्रगति का महत्व इसलिए अधिक है कि उसके बिना उदात्त दष्टिकोण, मानवता, विश्वमैत्री, प्रखर चरित्र एवं दूसरे के लिए स्वयं कष्ट सहने का, सहिष्णुता एवं सेवाभावना का विकास नहीं हो सकेगा। अतः आत्मिक प्रगति को दिशा में व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों प्रकार से प्रबल प्रयास होने चाहिए । आखिर परिष्कृत चेतना ही संसार के पदार्थों का सही उपयोग कर सकती है । गीताकार ने भी स्पष्ट कहा है
"परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ।" "मनुष्यो ! तुम एक-दूसरे के साथ परस्पर सद्भाव एवं सहयोग करते हुए भी परम श्रेय को प्राप्त कर सकोगे।" चेतना की प्रगति और बौद्धिक प्रगति में अन्तर
__ आजकल बुद्धि वैभव की चमत्कारी प्रगति प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रही है। विज्ञान से लेकर शिक्षा तक के सभी क्षेत्रों में उन्नति हो रही है, शक्ति और साधनों के नये-नये स्रोत हस्तगत हो रहे हैं, प्रकृति की रहस्यमय परतों पर से पर्दा उठता जा रहा है। परन्तु यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि यह बौद्धिक क्षेत्र की प्रगति है, चेतना की प्रगति नहीं। चेतना और बुद्धि का अन्तर समझ लेना चाहिए। बुद्धि का केन्द्र मस्तिष्क पंच भौतिक शरीर का एक अवयव मात्र है। वह मन का ही एक भाग है, जिसे जैन शास्त्रों में नो-इन्द्रिय (अर्ध-इन्द्रिय) कहा गया है। पैरों में दौड़ने की, हाथों में वजन उठाने की, जीभ में बातें बनाने की कुशलता बढ़ जाए तो उसे शारीरिक उन्नति ही समझा जाएगा, चेतना (आत्मा) की नहीं। चेतना की परतें बुद्धि से उतनी ही गहरी हैं, जितनी कि शरीर की तुलना में आत्मा की । शरीर से बलिष्ठ व्यक्ति दंगल में जीत सकता है, पर वह भक्ति भावना, सहृदयता और चरित्र की उत्कृष्टता में भी बढ़ा-चढ़ा हो, यह प्रायः नहीं देखा जाता । चेतना का क्षेत्र भावना का है। वह (चेतना) शरीर के साथ
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