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________________ आध्यात्मिक प्रगति के मूलाधार ६७ में वृद्धि करता । सेवा तपस्या और सहयोग के साथ प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा और प्रशंसा की भूख ने स्वार्थ की सौदेबाजी को उच्च स्थान दे दिया है । साक्षरता एवं सम्पन्नता के साथ सज्जनता, शालीनता, उदारता, निःस्वार्थ सेवा, आत्मीयता और सहकारिता जैसे आध्यात्मिक मूल्यों को मानव प्रायः खो बैठा है। आत्मिक प्रगति के इन मूलाधारों को अपनाए बिना मानव जीवन में आनन्द, प्रसन्नता, सुख प्राप्ति एवं निश्चितता प्राप्त होना दुर्लभ है । इसी कारण समाज-व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था और शासन व्यवस्था जर्जर होती जा रही है । इससे भविष्य में यांत्रिक प्रगति पर अवलम्बित रहकर मनुष्य स्वयं एक यन्त्र बनकर रह जाएगा, अपनी मौलिक विशेषताओं को खो बैठेगा । अतः अर्थ, समाज और शासन की सुव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के साथ-साथ आध्यात्मिक आस्थाओं को परिष्कृत और वृद्धिंगत करना चाहिए । भौतिकता के परिप्रेक्ष्य में जीवन स्तर न बढ़ाकर आध्यात्मिकता के परिप्रेक्ष्य में जीवन स्तर बढ़ाने की बात सोचनी चाहिए। अन्यथा, आदर्शविहीन प्रगति व्यक्तित्व को विकृत करेगी, नाना संकट, कुण्ठाएँ और चिन्ताएँ पैदा करेगी, भविष्य में वह अवगति से भी महंगी पड़ेगी । अन्य क्षेत्रों में प्रगति होने पर भी यथोचित उपयोग नहीं माना कि आर्थिक आदि क्षेत्रों में प्रगति हुई है, परन्तु उसके साथ उसका उपयोगकर्त्ता व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास नहीं है, तो वह प्रगति ही उस व्यक्ति और उससे सम्बद्ध परिवार को ले डूबेगी । मोटर अच्छी है, उसकी गति भी तीव्र है, परन्तु यदि उसका ड्राइवर कुशल और बाहोश नहीं है तो वह उस मोटर को दुर्घटनाग्रस्त कर देगा । ऐसी स्थिति में मोटर की सवारी पैदल चलने से भी अधिक मंहगी और भारी पड़ेगी । चोर, उचक्के, ठग, डाकू कितना कमाते हैं ? परन्तु उसका समुचित लाभ न तो वे स्वयं उठा पाते हैं और न ही वे अपने परिवार वालों को दे पाते हैं । उनका निकृष्ट बना हुआ व्यक्तित्व ( आत्मा ) सिर्फ अपराध प्रवृत्ति अपनाकर अनीति, अन्याय, अधर्म और पाप को उपार्जन करने की दिशा में प्रगति तो करता ही है, साथ हो उसने जो पाया कमाया है, उसे वह शराब, मांसाहार, व्यभिचार, जुआ आदि दुर्व्यसनों और अनाचारों में लगा कर आत्मिक ही नहीं, शारीरिक-मानसिक स्थिति को और भी अधिक बुरी बना लेता है | इसके विपरीत आध्यात्मिक प्रगति करने वाला गृहस्थ साधक अथवा सन्त स्वल्प साधनों से, न्याय-नीति से उपार्जित साधनों से मस्ती भरा आनन्दमय जीवन जोता है, और अपने सम्पर्क में आने / रहने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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