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________________ ६६ तमसो मा ज्योतिर्गमय सिता के उपकरण बढ़ते जा रहे हैं। मनुष्य इस बाह्य प्रगति के होते हुए भी अन्तर् में खोखला होता चला जा रहा है।" भारतीय संस्कृति जहां त्याग एवं संयम-प्रधान थी, वहाँ आज वह भोग एवं विलासिता प्रधान होती जा रही है । फलतः वह पहले जैसे मानवीय अन्तःकरणों को जोड़ती थी, वैसे अब वह उन्हें तोड़ती और विखेरती जा रही है । फलतः मानवीय अन्तःकरण की आन्तरिक प्रगति का भयावह अवरोध संकट पैदा हो गया है । इस औद्योगिक युग में प्रगति तो अवश्य हो रही है, लेकिन वह किस दिशा में हो रही है, इसका लेखा-जोखा करने तथा आत्मचिन्तन एवं आत्मनिरीक्षण करने की मनुष्य को फुरसत नहीं है । यह अनघड़, अनिश्चित और अस्थिरतावर्द्धक दौड़ मनुष्य को कहाँ पहुंचाएगी, इसका कोई ठिकाना नहीं। मनुष्य के जीवन में वह आनन्द, उल्लास, मस्ती और शान्ति प्रायः गायब हो गई है। मनुष्य बाहर से गगनचुम्बी अट्टालिकाओं में रहता हुआ तथा मुद्रास्फीति के कारण अर्थसम्पन्नता का अनुभव करता हुआ भी भीतर से स्वयं को अनिश्चित, अनिश्चित, असहाय और असुरक्षित महसूस कर रहा है। मनोविनोद के लिए वर्तमान युग के गृहस्थ प्रायः क्लबों, मदिरालयों, सिनेमाघरों एवं टी० वी० आदि की शरण में जाते हैं, जहाँ उन्हें तथा उनको संतति को घटिया मनोरंजन के साथ-साथ मर्यादाहीन योनाचार, भ्रष्टाचार, चोरी, डकैती आदि अपराधों का प्रशिक्षण जाने-अनजाने मिल जाता है। इससे मानवीय चिन्तन एवं प्रगति की दिशा भौतिकता, विलासिता एवं स्वार्थपरता को ओर तेजी से अग्रसर हो रही है। इसके फलस्वरूप पहले जहाँ मनुष्य बड़े कुटुम्ब के रूप में हिलमिल कर रहते थे, परस्पर सहयोग से काम करते और बांटकर खाते थे, वहाँ आज का मनुष्य अपना-अपना घरौंदा अलग-अलग बना कर रहता है, अपने ही परिवार-स्त्री बच्चों के लिए सोचने और अपने ही स्वार्थ में, अपने और अपनों के पेट, प्रजनन और पालन में तत्पर रहता है। जीवन में परमार्थ, परोपकार और सेवाभाव के उच्चस्तरीय मूल्य समाप्तप्रायः होते जा रहे हैं। अगर भौतिक प्रगति के साथ मनुष्य में सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की समझदारी और तदनुसार गति करने की वृत्ति होतो तो वह जोवन के उच्चस्तरीय आध्यात्मिक मूल्यों को अपनाता, केवल अपने और अपनों के विषय में सोचने के बजाय वह अपने से अधिक पीड़ित, पददलित, शोषित, अंगविकृत एवं निराश्रित लोगों के लिए कुछ करने तथा आत्मीयता एवं सेवाभावना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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