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आध्यात्मिक प्रगति के मूलाधार ६५ गुना तथा कागज का खर्च चौदह गुना बढ़ गया है। शिक्षा सम्पन्न होने पर भी नई पीढ़ी में विवेक, विनय, विज्ञान, आत्मिक विकास आदि अत्यन्त घटे हैं । ग्रामीण क्षेत्रों को छोड़ कर शहरों में जा बसने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है। फलतः एक ओर देहातों से प्रतिभासम्पन्न लोगों का पलायन हो रहा है। जबकि शहरों में अवांछनीय निरंकुशता बढ़ रही है। घिचपिच बस्ती में रहने से बढ़ती हुई गंदगी को हटाने की समस्या अत्यन्त जटिल होती जा रही है। सफाई का सन्तुलन बिगड़ता जा रहा है। स्वच्छता के लिए धनशक्ति और जनशक्ति की भारी आवश्यकता है। जितनी तेजी से सफाई एवं सामग्री का सन्तुलन बिगड़ता जा रहा है, उतनी ही तेजी से आत्मिक दृष्टि से जीवन धन का ह्रास हो रहा है। शहरी का आकर्षण उनकी आबादी को तेजी से बढ़ा रहा है। क्षेत्र विस्तार उतना नहीं होता, जितनी घिचपिच बढ़ती जा रही है। कल-कारखानों का प्रदूषण, हवा में धुआं और नदियों में गंदा पानी बढ़ता जा रहा है। इससे जनजीवन के स्वास्थ्य को भारी क्षति पहुँचती है। अमेरिका जैसे साधन-सम्पन्न देशों में १५ प्रतिशत मानव अपने जन्म स्थान में मृतक का-सा जीवन बिताते हैं, शेष यायावरों की तरह भटकते और एक स्थान से दूसरे स्थान पर अपना बसेरा करते हुए जीवन बिताते हैं । फुरसत नाम की चोज जनजीवन में से बिदा हो गई है। आदमी अत्यन्त व्यस्त हो गया है. इस भौतिक और वैज्ञानिक युग में । मनुष्य जितने-जितने समृद्ध हैं, उतने-उतने ही अधिकाधिक उपभोग के लिए लालायित हैं । अधिकाधिक उपभोग की आदतों ने उपभोगपरिभोग-परिमाण की-संयम की वृत्ति समाप्त कर दी है। उपभोग की आदतों में इतनी प्रगति है कि उसकी पूर्ति के लिए अपना समय, श्रम, धन, साधन एवं समग्र चिन्तन शक्ति झोंक देने पर भी उनकी पूर्ति नहीं हो पा रही है। ऐसी स्थिति में आत्मिक प्रगति कैसे हो ? निष्कर्ष यह है कि भौतिक प्रगति और उसकी पूर्ति की दौड़ में मनुष्य आध्यात्मिक दृष्टि से इतना पिछड़ गया है कि उसे व्यस्तता, तनाव, खोज, चिन्ता और अतृप्तिजन्य खिन्नता के सिवाय और कुछ हाथ नहीं लगता। बाह्य प्रगति कितनी अनर्थकर?
प्रसिद्ध दार्शनिक 'रिचार्ड बी. ग्रेग' ने ठीक हो लिखा है कि "विश्व के इतिहास में ऐसे आन्तरिक अनिश्चितता भरे बुरे दिन कभी नहीं आए, जितने इस समय में हैं । जनसंख्या और यातायात के साधनों में तेजी आ रही है, उसके साथ-साथ शहरी संस्कृति का विस्तार, फैलाव एवं विला
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