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मानसिक शान्ति के मूलसूत्र ५७
ईर्ष्या से मानसिक अशान्ति
कई लोगों के पास पर्याप्त धन एवं साधन होते भी हैं, फिर भी वे ! उनका सदुपयोग करने के बदले दूसरों के प्रति ईर्ष्या और प्रतिस्पर्द्धा करके दुःख होते रहते हैं । वे दूसरों की स्थिति अपने से अच्छी देखकर स्वयं को दीन-हीन एवं निर्धन महसूस करने लगते हैं । उसे अपने पास के साधन कम मालूम होते हैं । किसी की उन्नति देखकर ऐसे व्यक्ति जलने- कुढ़ने लगते हैं । ऐसे अभागे अज्ञानग्रस्त व्यक्ति जीवन में स्थायी शोक-सन्ताप के सिवाय और क्या पा सकते हैं ?
संसार में एक से एक बढ़कर धनवान और एक से एक बढ़कर निर्धन या अभावग्रस्त पड़े हैं । इसलिए अपनी स्थिति पर असन्तुष्ट होकर रोने या दूसरों से जलने की अपेक्षा मनुष्य को अपने से निर्धन एवं अभाव पीड़ित की ओर देखना चाहिए | तभी सन्तुष्टि और मनःशान्ति प्राप्त हो सकती है । अपनी स्थिति में जो दुःखी हो रहा है, उसे सोचना चाहिए कि क्या उसकी स्थिति समाज में सबसे गई गुजरी है ? ऐसा तो नहीं है । तब उसका खेद करना कथमपि उचित नहीं है । ईर्ष्या, प्रतिस्पर्द्धा और भौतिक लालसा मानसिक शान्ति में बाधा उत्पन्न करने वाली हैं । अपने दुर्भाग्य के लिए दूसरों की नुक्ताचीनी, टीका टिप्पणी या मिथ्या आलोचना करना भी उचित नहीं | ऐसा करने से दुर्भाग्य तो मिटेगा नहीं, उलटे अशुभ कर्मबन्ध होने से बढ़ेगा ही । अतः दुर्भाग्य को सौभाग्य में परिवर्तित करने के लिए व्यक्ति समभाव, सन्तोष, तप, त्याग, संयम, प्रत्याख्यान, कषायविजय, विषयासक्ति त्याग, धैर्य आदि का अभ्यास बढ़ाना चाहिए । परिस्थितियों से घबराकर विचलित न हों
मनुष्य के जीवन में कुछ परिस्थितियाँ अनिवार्य होती हैं, उन्हें प्रसतापूर्वक सहे बिना छुटकारा नहीं। मानव जीवन में सैकड़ों प्रतिकूलताएँ, विपत्तियाँ, दुःख, बीमारी, इष्टवियोग अनिष्टसंयोग आते हैं । शान्ति और धैर्यपूर्वक उनका सामना करना या उन्हें सहन करना सीखना चाहिए । ऐसा करने से आत्मबल, धैर्य एवं गाम्भीर्य बढ़ेगा । उसकी इच्छाशक्ति मजबूत बनेगी । फलतः प्रतिकूलताएं या विपरीत परिस्थितियाँ भी अनुकूल बनाई जा सकेंगी।
परालम्बिता का यथाशक्ति त्याग करो
कई बातों में मनुष्य स्वावलम्बी बन सकता है, परन्तु थोड़ी-सी
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