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मानसिक शान्ति के मूलसूत्र ५५ उठ जाता है। जिस मनुष्य को मानव शरीर में श्रेष्ठ आत्मा जैस प्रसाद मिला हो, उत्तम चिन्तन करने के लिए बुद्धि और विवेक जैसा पुरस्कार मिला हो. विशिष्ट क्षमताओं, योग्यताओं और सामर्यों से भरा मन मिला हो, शक्तिशाली, सुन्दर, स्वस्थ, सुघड़ शरीर मिला हो, वह मनुष्य दीन-हीन हो ही कैसे सकता है ? दीनता-हीनता का अनुभव करना मानसिक अशान्ति को स्वयं न्यौता देना है। इस नास्तिकता के दुष्परिणाम
इसी नास्तिकता के परिणामस्वरूप मनुष्य स्वयं दुःखी एवं अशान्त होकर कभी-कभी आत्महत्या कर लेता है, जो निकृष्ट एवं पापपूर्ण कार्य है। ऐसे नास्तिक एवं अविद्यावान लोग अपने अभावों एवं परिस्थितियों का रोना रोते रहते हैं। ऐसे लोग अपने मन-मस्तिष्क को परिस्थितियों की प्रतिकुलता को समपित कर आर्तध्यान करते रहते हैं। ऐसा करने से मनुष्य निर्बल. निकम्मा एवं निराश होकर अन्धेरे में भटकता रहता है, अपनी मानसिक क्षमताओं को नष्ट कर डालता है।
परिस्थितियों से घबराकर मन को अशान्त एवं असंतुलित बनाने अथवा अपने अभावों और विषमताओं पर रोते रहने के अभ्यासी लोगों का अपने पर से ही नहीं, वीतराग परमात्मा पर से भी विश्वास उठ जाता है। वह या तो निमित्तों को कोसता है या परमात्मा को। इस प्रकार वह अपना आत्मविश्वास खोकर अपने उपादान (आत्मा) का संशोधन नहीं करता, बल्कि आत्मशुद्धि के लिए व्रत, नियम, तप, संयम, त्याग का आचरण करना भी छोड़ देता है । वह अज्ञानवश पुराने अशुभ कर्मों का क्षय तो कर नहीं पाता, नये अशुभ कर्मों को और बाँध लेता है। अपनी परिस्थिति में सन्तुष्ट रहना सीखो
___अगर व्यक्ति अपनी संकटापन्न परिस्थिति में धैर्य रखे, मन का सन्तुलन न खोए, अपनी स्थिति में ही सन्तुष्ट और प्रसन्न रहने का आस्तिकभाव बनाए रखे अथवा शान्तिपूर्वक परिस्थिति का सामना करे, स्वयं को परिस्थिति के अनुरूप एडजस्ट करले तो वह मानसिक शान्ति भी प्राप्त कर लेता है, परमात्मा की कृपा का पात्र, गुरुदेवों के आशीर्वाद का भाजन एवं धर्माचरण को सक्षम भी बनाता है । अपनी आत्मा को भी ज्ञान-दर्शन के प्रकाश से विकसित कर लेता है। आस्तिकता सम्पन्न व्यक्ति कभी दुःखी नहीं होते।
अपनी परिस्थिति के विषय में इस प्रकार की आस्तिकता एवं
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