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५४ तमसो मा ज्योतिर्गमय युक्ति और पांडित्य में तथा भाषा ज्ञान में भी दूसरों से बाजी मार लेते हैं, किन्तु वे हृदय को महत्त्व नहीं देते। वे बुद्धि के बल पर शास्त्रों की लम्बीचौडी व्याख्या कर सकते हैं, लच्छेदार भाषण दे सकते हैं, अनेक भाषाएँ बोल सकते हैं, परन्तु हृदय की जड़ता के कारण वे अविद्या के अन्धकार में भटक कर मानसिक अशान्ति के गहरे गर्त में पड़े रहते हैं। बुद्धि के बल पर भ्रान्तिवश वे व्यापार, शिक्षा, पाण्डित्य, विद्वत्ता, उच्च पद आदि से जीवन में सफलता के स्वप्न देखते हैं, परन्तु हृदय की व्यापक विशालता एवं सम्यग्ज्ञान के अभाव में सफलता उनसे कोसों दूर रहती है । अविद्या का लक्षण
___ आत्मा की विशिष्ट शक्तियों का ज्ञान न होना, अथवा बौद्धिक उड़ान को ही सम्यग्ज्ञान मानना अविद्या है। अविद्या के कारण ही मनुष्य शरीर को ही सब कुछ समझता है । उसके दुर्बल, रुग्ण, अशक्त, बेडौल एवं कुरूप होने को ही अपने आप (आत्मा) की दुर्बलता, रुग्णता, अशक्ति, कुरूपता या बेडौलपन समझता है । इसी प्रकार शरीर और शरीर से सम्बन्धित सजीवनिर्जीव वस्तुओं को अपनी और शाश्वत समझ कर मोह-ममत्ववश सुखदुःख की कल्पना करता है, यही अज्ञान है, अविद्या है। इसी अविद्या के कारण मन में काम, क्रोध, लोभ, मोह, मात्सर्य, द्वष आदि नाना विकार पैदा होते हैं, जिनसे मानसिक संक्लेश पैदा होता है। अगर मनुष्य अविद्या और उसके कारणों एवं परिणामों को समझ ले तथा उनसे दूर रहने का सतत् अभ्यास करे तो वह मानसिक अशान्ति से छुटकारा पा सकता है। अविद्या : एक प्रकार की नास्तिकता
___ इसी अविद्या के कारण कई मनुष्य स्वयं को दीन-हीन और दुःखी मान कर दिन-रात रोते-झींकते और चिन्ता करते रहते हैं । इससे मानसिक अशान्ति, तनाव और विपत्ति बढ़ती जाती है । स्वयं को दीन-हीन मान कर चलने वाले व्यक्ति जाने-अनजाने प्रायः नास्तिकता के घोर अन्धकार की ओर बढ़ते जाते हैं । नास्तिकता भी अविद्या का ही एक प्रकार है । निराश चितित एवं अप्रसन्न रहना आत्मा का तिरस्कार है, आत्मा की अनन्त शक्ति, के प्रति अश्रद्धा एवं अवमानना है, यह भी नास्तिकता है। आस्तिक व्यक्ति हर परिस्थिति और प्रत्येक दशा में प्रसन्न, सन्तुष्ट और उल्लसित रहता है। वह जानता है कि दीन, होन, मलिन और अप्रसन्न रहने से आत्मा का तेज नष्ट होता है, आत्मा के अस्तित्व एवं उसकी प्रचण्ड शक्तियों पर से विश्वास
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