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मानसिक शान्ति के मूलसूत्र
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जाता है। आलस्य, शैथिल्य और दौर्बल्य आदि उसे बुरी तरह घेरे रहते हैं । इस प्रकार दुःखपूर्ण जीवन बिताने के कारण उसका स्वास्थ्य, बल और विवेक चौपट हो जाता है । जिस मन में अशान्ति अपना डेरा डाल देती है, वहाँ मानसिक सन्तुलन, विवेक, विचार एवं सम्यग्ज्ञान नष्ट हो जाते है । उस व्यक्ति की बुद्धि भी स्वस्थ और सन्तुलित नहीं रहती, जिसके फलस्वरूप वह् अशान्ति के कारणों का निवारण करने में असमर्थ हो जाता है । अगर वह उद्विग्न मन से उलटे-सीधे प्रयत्न भी करता है, तो उसके परिणाम उलटे ही निकलते हैं ।
मानसिक अशांति : एक आपत्ति, एक व्याधि
मानसिक अशान्ति भयंकर आपत्ति है, जो दूसरी आपत्ति को न्यौता देती है । एक आपत्ति से छूट कर दूसरी में पड़ जाना, विषाद से छूट कर निराश हो जाना, क्रोध से छूट कर शोक और शोक से छूट कर भय के वशीभूत हो जाना, यह विष चक्र मानसिक अशांति का परिणाम है ।
मानसिक अशान्ति से मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है, तब विक्षिप्तता पैदा हो जाती है। हर समय दुःखी, अशान्त चिन्तित और परेशान रहना उसके जीवन क्रम का विशिष्ट अंग बन जाता है । जिस प्रकार शरीर में ताप की अधिकता से ज्वर नामक शारीरिक व्याधि हो जाती है, उसी प्रकार अधिक संतप्त एवं उद्विग्न रहने वाले व्यक्ति को 'अशान्ति' नामक मानसिक व्याधि उत्पन्न हो जाती है । मानसिक अशान्ति मानव-जीवन की जोती-जागती नरक भूमि है । मानसिक अशान्ति से शरीर में भयंकर उत्तेजना भी पैदा होती है, जिससे उसके रक्त में भयंकर विष व्याप्त हो जाता है, जो रक्त के क्षार को नष्ट करके गठिया, यक्ष्मा, कैंसर आदि भयंकर व्याधियों को उत्पन्न करता है ।
अविद्या हो मानसिक अशान्ति का मूल कारण
मानसिक अशान्ति का मूल कारण महापुरुषों ने 'अविद्या' को बताया है । उसी के साथ फिर मोह, काम, क्रोध, लोभ, असमता आदि अन्य कारण जुड़ते जाते हैं । भगवान् महावीर ने अन्तिम प्रवचन में दुःख और अशान्ति मूल कारण की मीमांसा करते हुए कहा था
के
'जावतोऽविज्जा - पुरिसा सव्वे ते दुक्खसंभवा'
जितने भी अविद्यावान् पुरुष हैं, वे सब अपने लिए दुःख और अशान्ति पैदा करते हैं । सचमुच, ऐसे मनुष्य बुद्धि में बहुत बढ़े - चढ़े होते हैं, वे तर्क,
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