SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२ तमसो मा ज्योतिर्गमय युक्त घड़े में दूध का दोहन सम्भव नहीं हो सकता। मोटर के कलपुर्जे टूटेफटे तथा कील-कांटे ढीले-ढाले एवं अंजर-पंजर हों तो उस मोटर में चलनेचलाने की क्षमता नहीं होती। इसी प्रकार शरीर ढीला-ढाला, सुस्त, अशक्त एवं बीमार होगा तो मानसिक संस्थान ठीक-ठीक काम नहीं कर सकेगा। पर्याप्त साधन-सम्पत्ति होने पर भी मानसिक अशान्ति कई लोगों के पास सून्दर ढंग से जीने के लिए पर्याप्त साधन-सामग्री, आर्थिक समृद्धि, बौद्धिक योग्यता एवं उच्च शिक्षा तथा उच्च पद-प्रतिष्ठा होने पर भी उनका मन अशान्त एवं उद्विग्न देखा जाता है। कई अच्छे व्यापारी, नेता, पण्डित या अधिकारी होते हैं, फिर भी सतत खोये खोये से प्रतीत होते हैं, वे भूले भटके राही, स्वयं भी परेशान रहते हैं, अपने परिवार वालों को भी परेशान और अशान्त करते रहते हैं। अधिकांश लोगों की लगभग एक ही शिकायत है-मन की अशान्ति, मानसिक परेशानी, मन की अस्वस्थता और अशान्ति । ऐसे लोगों का मन सदा असंतुलित, अस्वस्थ और व्यग्र रहता है। वे इसके लिए तरह-तरह का प्रयत्न करते हैं, फिर भी उन्हें समाधान नहीं मिल पाता। अशांत मत : अनेक बुराइयों का कारण जिसका मन अशान्त एव उद्विग्न रहता है, उस व्यक्ति का भाग्य रूठ जाता है। उसके विकास और उन्नति की सारी सम्भावनाएं नष्ट हो जाती हैं। निराशा और विषाद उसे रोग की तरह घेर लेते हैं। जीवन के सारे सूख उसे छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं । न उसे भोजन अच्छा लगता है, न नींद आती है । जरा-जरा-सी बात पर वह कुढ़ता है, खीजता है और दूसरों को कोसने लगता है । अप्रिय एवं अस्वास्थ्यकर मानसिक कुण्ठाओं से उसका हृदय परिपूर्ण रहता है । मन की अशान्ति से विवेक, विचार और सन्तुलन नष्ट अनेक मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों से यह सिद्ध हो चुका है कि मन की अशान्ति एवं उद्वग्निता मनुष्य के स्नायु संस्थान पर अनुचित बोझ डाल कर उसे कमजोर बना देती है। वह विश्राम करता है लेकिन उसे आराम नहीं मिलता । अशान्त एवं उद्विग्नचित्त व्यक्ति जब सोकर उठता है, तब गहरी नींद न आने के कारण ताजगी और स्फूर्ति के बदले भारी थकान और सुस्ती का अनुभव करता है । उसका शरीर निढाल और लुजपुंज हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy