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________________ सर्वतोमुखी आत्मविकास का उपाय : तप ४७ दौड़ लगवाते हैं, अन्यथा वे थोड़े ही दिनों में भारी भरकम हो जाएंगे, उनके लिए युद्ध करना तो दूर, अपने शरीर का बोझ ढोना भी कठिन हो जाएगा। जैन शास्त्रों में राजकुमारों, रानियों, धनाढ्यों एवं शिल्पकारों के ऐसे कई उदाहरण कूट-कूट कर भरे हैं, जिन्होंने साधु जीवन अंगीकार करने से पहले आरामतलबी में जीवन बिताया था, लेकिन दीक्षा लेने के बाद रत्नावली, कनकावली आदि उत्कट तपस्याओं द्वारा अपने जीवन के कल्मषों को धोकर आत्मा को प्रखर, तेजस्वी एवं ओजस्वी बना लिया। कई साधकों को उत्कट तपस्या से विशिष्ट लब्धियाँ एवं सिद्धियाँ भी प्राप्त हुई । वे लोग आत्मिक शक्तियों से सम्पन्न बने । तपश्चर्या की गर्मी के कारण व्यक्ति की प्रसुप्त शक्तियों को, मनोबल एवं आत्मबल को जागृत होने का अवसर मिलता है । आन्तरिक सत्पात्रता का संवर्धन करने के लिए तपःसाधना ही उत्तम उपाय है । व्यक्तित्व को समुन्नत एवं साधना से समृद्ध बनाने के लिए मुख्यतया चेतनात्मक सामर्यों की जरूरत पड़ती है। साधन-सुविधाओं से बड़प्पन मिल सकता है, किन्तु तेजस्विता, महानता, ओजस्विता एवं मनस्विता उपाजित करने के लिए आत्मिक सामर्थ्य, क्षमता एवं शक्तित के. सिवाय और किसी साधन से काम नहीं चलता और आत्मिक शक्तियाँ किसी देवी-देव या भगवान् से वरदान या सन्त-महन्त से उपहार के रूप में प्राप्त नहीं हो सकतीं । अगर मिल गई होती तो अर्जुनमाली को मुद्गरपाणि यक्ष से मिल सकती थीं। इन्हें तपःसाधना के द्वारा यत्नपूर्वक अपने भीतर से ही उभारनी पड़ती हैं । यही श्रमण संस्कृति का वज्र आधोष है। ..अतः तपस्या का उद्देश्यमूलक फलितार्थ यही है कि आत्मा की उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता को अपनाने में जो कष्ट उठाने पड़ते हैं, उन्हें साहस एवं प्रसन्नता के साथ आमन्त्रित एवं शिरोधार्य करना । आध्यात्मिक प्रगति के पथिक को आत्मशुद्धि एवं आत्मनिर्माण की प्रचण्ड संकल्प-शक्ति के साथ प्रखरचेष्टा करनी पड़ती है । उस श्रेय मार्ग पर चलने में जो कठिनाइयाँ आती हैं, उन्हें प्रसन्नता और साहसिकता के साथ स्वीकार करना ही तपश्चर्या है। कौन-सा ऐसा कठिनतम कार्य है, जो तपस्या से प्राप्त नहीं हो सकता ? मनुस्मृति में बताया है यदुस्तरं यदुरापं यदुर्गम च यदुष्करम् । - तत्सर्वं तपसा साध्यं तपोहि दुरतिक्रमम् ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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