SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८ तमसो मा ज्योतिर्गमय जो बहुत दुस्तर है, बहुत कठिनता से प्राप्त किया जा सकता है, जो दुर्गम और दूष्कर है, वह सब तप द्वारा सिद्ध किया जा सकता है, क्योंकि तप के लिए कोई भी बेड़ा पार न होने जैसा नहीं है। साधना से पूर्व आत्मशुद्धि और आत्मशुद्धि के लिए तप आवश्यक यह ठीक है कि तपस्या से आत्मशुद्धि होती है, किन्तु तपःसाधना द्वारा वह आत्मशुद्धि, आत्मसाधना या उपासना पूर्व करना आवश्यक है। आशय यह है कि तपश्चर्या से पूर्वसंचित अशुभ कर्मों का क्षय हो जाता है, जैनशास्त्र उत्तराध्ययन (३०/६) इस तथ्य का साक्षी है 'भवकोडिसंचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जई' 'साधक करोड़ों भवों के संचित कर्मों को तपश्या के द्वारा क्षीण कर देती है।' 'तवेण परिसुज्झइ' 'तपस्या से आत्मा की परिशुद्धि होती है।' यही तपःसाधना का प्रथम लक्ष्य है । संचित कषायों-कल्मषों के रहते कोई भी आत्मसाधना सफल नहीं हो सकती। विलासिता या चारित्रशिथिलता की स्थिति में रहकर आत्मसाधना करने वालों की तुलना में तपश्चर्या से आत्मशोधन (अशुभ कर्मों की निर्जरा एवं दोष-दुर्गुणों-अपराधों आदि की प्रायश्चित्त द्वारा शुद्धि) करके आत्मसाधना में लगने वाले व्यक्ति अपने लक्ष्य तक अच्छी तरह पहुँचते हैं, शीघ्र सफलता प्राप्त कर लेते हैं। पूर्वसंचित अशुभ कर्मों से तपस्या द्वारा निवृत्त हो जाने पर आत्म-साधना को सफलता में साधक शीघ्र सफल हो सकता है। दोष दुर्गुणों के रहते चिरस्थायी आत्मिक प्रगति के पथ पर चल सकना किसी भी व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं हुआ है । आत्मशोधन के बिना उच्चकोटि की साधनाएं निष्फल चली जाती हैं। मैत्रायणी उपनिषद् (४/३) में भी स्पष्ट कहा है...."एतदप्युक्तं नातपस्कस्यात्मज्ञानेऽधिगमः कर्मशुद्धिर्वत्येवं ह्याह तपसा प्राप्यते सत्त्वं, सत्त्वात् संप्राप्यते मनः । मनसा प्राप्यते त्वात्मा, ह्यात्मापत्त्या निवर्तते ।। "तपस्या के बिना आत्मा में ध्यान नहीं लगता, न कर्मशुद्धि होती है। तप से सत्त्व प्राप्त होता है, सत्त्व (ज्ञान) से मन का निग्रह होता है । मन स्थिर होने पर आत्मा की प्राप्ति होती है और बन्धन छूट जाते हैं।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy