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तमसो मा ज्योतिर्गमय
आता । बार-बार उसकी साधना में बिक्षेप पड़ता है । उसकी रत्नत्रय साधना आत्म साधना आगे नहीं बढ़ पाती है । वह रत्नत्रय साधना या आत्मसाधना के मार्ग पर या तो ज्ञान-विवेक-शून्य क्रियाकाण्डों में ही उलझ जाता है, अथवा कोरा आत्मज्ञान बघारने में ही रह जाता है, वह ज्ञान को आचार में क्रियान्वित नहीं कर पाता । इस बाधा को दूर करने और अध्यात्मसाधना को निराबाध रूप से प्रगति के लिए 'प्रायश्चित्त' तप की साधना प्रस्तुत की गई है । प्रायश्चित्त तप से आत्मा पर लगे हुए दोषोंभूलों- अपराधों की आलोचना - निन्दना गर्हणा, क्षमापना एवं क्षतिपूर्ति द्वारा शुद्धि की जाती है । इस प्रकार प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग, यों छह प्रकार के आभ्यन्तर तप द्वारा आत्मा की शुद्धि और शक्ति में अभिवृद्धि होती है।
बाह्य और आभ्यन्तर, दोनों प्रकार की तप साधना में मन की चंचलता और सुखोपभोगलिप्सा की बहिर्मुखी प्रवृत्ति को रोक कर उसे आत्माभिमुखी - अन्तर्मुखी करने का प्रयास किया जाता है । मन और आत्मा के संघर्ष में जीत किसकी ?
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यद्यपि सुखानुभूति आत्मा की आकांक्षा भी हैं, परन्तु मन के स्तर बहुत ऊँची एवं भिन्न है । मन को वासना, तृष्णा, अहंता, ममता आदि की पूर्ति में सुखलिप्सा पूर्ति की तृप्ति मिलती है, जबकि आत्मा को उच्चस्तरीय आत्मिक गुणों या रत्नत्रय के पालन में आनन्द आता है, जिसे सन्तोष या शान्ति कहते हैं । संक्षेप में मन को भौतिक सुख की आकांक्षा रहती है और आत्मा को आध्यात्मिक सन्तोष एवं शान्ति की। दोनों में प्रायः रस्साकसी चलती रहती है । तपस्या से विरत मानव का मन यदि जीत जाता है, तो उसकी आत्मा असहाय स्थिति में असन्तुष्ट होकर पड़ी रहती है, परन्तु तपस्यारत साधक की आत्मा प्रायः जीतती है, ऐसी स्थिति में मन को दबना पड़ता है, आत्मा के आधीन होकर रहना पड़ता है। शुरूशुरू में उद्धत मन को संयत बनाने में तपस्यारत साधक को काफी संघर्ष करना पड़ता है । परन्तु बाद में तपस्वी साधक की दृढ़ता और आत्मपरायणता देखकर मन समझौता कर लेता है । जिस प्रकार जंगली पशु जब पालतू बन जाते हैं, तो मालिक के इशारे पर चलने लगते हैं, इसी प्रकार मन भी तपस्वी के इशारे पर चलने लगता है । तपःसाधना द्वारा मन को इसी प्रकार साधा जाता है, जिस प्रकार सर्कस वाले सिंह जैसे आक्रमणकारी
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