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सर्वतोमुखी आत्मविकास का उपाय : तपः ४३ प्राणी को आज्ञापालक, स्वामिभक्त, एवं विनीत बनाने में सफल हो जाते हैं । तपःसाधना और कुछ नहीं, वह मन की चंचलता और वैषयिक सुखलिप्सा की अनघड़ आदतों और चेष्टाओं को छुड़ाकर उसे आध्यात्मिक जीवन के लिए उपयोगी प्रवृत्तियों में संलग्न होने, तथा बहिर्मुखी से अन्तमुखी बनाने का अभ्यास है । तपःसाधना में वैषयिक सुख के बदले आत्मिक सुख या सन्तोष को प्रधान मानना है । यही वह परिवर्तन है, जिसे द्विविध तपस्यारत मानव को करना है। उभयविध तप में शारीरिक, ऐन्द्रियक, मानसिक एवं बौद्धिक तितिक्षा का, या सुविधाओं व इच्छाओं के निरोध का अभ्यास करना पड़ता है, ताकि तन-मन आदि की अनघड़ कुसंस्कारिता, चंचलता एवं सुखलिप्सा को छुड़ाया जा सके । उसे पतनोन्मुखी बाह्य इच्छाओं-लालसाओं से विरत करके उच्चस्तरीय आन्तरिक आत्मभाव में, आत्मगूणों में या रत्नत्रय के निरतिचार-निराबाध पालन में प्रवृत्त किया जा सके । यही उभयविध तपःसाधना का मुख्य उद्देश्य है ।
दोनों प्रकार की तपःसाधना में साधक को तन-मन के प्रति जो जागृति, दृढ़ता एवं कठोरता अपनानी पड़ती है, वह तन-मन को आत्माभिमुखी बनाने तथा आत्मा को परिष्कृत एवं सशक्त बनाने के लिए है । जिस प्रकार सत्परिणाम प्राप्त करने के लिए किसान, विद्यार्थी, श्रमिक, व्यापारी, कलाकार आदि को शारीरिक सुख सुविधाओं, एवं अनधड़ दुष्प्रवृत्तियों से 'विरत होने के लिए मन को मारना पड़ता है तथा अपने सूखे एवं नीरस प्रयोजनों में एकाग्र होना पड़ता है।
इस प्रकार की तपःसाधना से तपस्वी का तन-मन और आत्मा निखर उठता है । यद्यपि प्रारम्भ में तपःसाधक को मन की उद्दाम इच्छाओं को मारना पड़ता है, शारीरिक सुख-सुविधाओं में कटौती करनी पड़ती है, कष्ट भी सहना होता है, परन्तु इन सबका परिणाम सुखद और सन्तोषजनक होता है । तपःसाधना के पीछे जो उज्ज्वल सम्भावनाएँ विद्यमान हैं, उन्हें देखते हुए यह घाटे का सौदा नहीं है। तपस्या का उद्देश्य : तितिक्षा बढ़ाना
यह स्पष्ट है कि बाह्य एवं आभ्यन्तर दोनों प्रकार की तपस्याओं में शारीरिक संयम, इन्द्रिय-निग्रह, मनोनिग्रह, सुखोपलिप्सा पर नियन्त्रण, व्युत्सर्ग, आर्तरौद्र ध्यान-त्याग, मदत्याग, सुख-सुविधाओं में कटौती, आत्मशुद्धि, आदि सब तितिक्षा बनकर तपःसाधना के उद्देश्य को पूरा
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