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सर्वतोमुखी आत्मविकास का उपाय : तप ४१ तथा स्पर्शेन्द्रिय सुख का आस्वादन करने की अभिरुचि बनी रहती है। जाति, कुल, बल, रूप, श्रुत, तप आदि का मद तथा अपने अहंकार की पूर्ति के लिए मन एवं वचन उछलते रहते हैं, शरीर मन के निर्देशन में कई प्रकार की दुश्चेष्टाएँ करता है, वह अभिमान के तथा ऋद्धि-रस-साता के गर्व के आवेश में आकर सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र के प्रति भी अश्रद्धा, अविनय और उद्धतता प्रकट करता है, देव, गुरु एवं धर्म के प्रति (अवर्णवाद) निन्दा एवं आशातना करने लगता है। इसके निराकरण के लिए मन को विनय तप की साधना में लगाया जाता है। शरीर और शरीर से सम्बन्धित सजीव पदार्थों के प्रति अहंत्व, ममत्व, स्वामित्व एवं इष्ट वस्तुओं के प्रति राग और अनिष्ट के प्रति द्वष के कारण अनघड़ मन आत्मा को नाना प्रकार के कर्मबन्धनों में जकड़ता रहता है। अहंता मद और ममता की तीव्रता के कारण मन श्रेष्ठ व्यक्तियों, धर्मधुरन्धरों या धर्म संघ की सेवा (वैयावृत्य) तप से वंचित कर देता है। फलतः साधक की ज्ञान-दर्शन चारित्र की साधना सच्चे माने में साकार नहीं होती, वह केवल परम्पराओं के पालन में, तथा साम्प्रदायिक कट्टरता के अनुसरण में ही समाप्त हो जाती है । इसके निराकरण हेतु वैयावृत्य तप की साधना ही बताई गई है । निरंकुश मन क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि आन्तरिक शत्रुओं को सुखलिप्सा की दृष्टि से पपोलता रहता है, इन दुर्विचारों से मन को विरत करने एवं सद्विचारों एवं सम्यग्ज्ञान-तत्वज्ञान में प्रवृत्त करने हेतु स्वाध्याय तप की योजना है। मन को इस पतनोन्मुखी-बहिर्मुखी सुखलिप्सा की प्रवृत्ति से आत्मा को असीम हानि उठानी पड़ती है। आत्मा में निहित बहुमूल्य गुणसम्पदा इन्हीं उलझनों में नष्टभ्रष्ट होती रहती है । और आत्मा (मानवात्मा) इस सुरदुर्लभ अवसर का समुचित लाभ नहीं उठा पाती । बहुत बार वह इष्ट वियोग और अनिष्टसंयोग के कारण आर्त रौद्र ध्यान में डूबी रहती है। आत्मा का मंत्री मन उसे इन दुर्व्यानों में उलझाकर उसकी शक्तियों को प्रकट नहीं होने देता । इसलिए ध्यान तप की साधना का निर्देश किया गया है। शरीर और शरीर से सम्बन्धित सजीव-निर्जीव पदार्थों पर स्वामित्व, संग्रह, ममत्व और अहंत्व में मन की सुखलिप्सा की तृप्ति होती है, इसलिए आत्मा के सिवाय समस्त पर-पदार्थों से ममत्व, अहंत्व, स्वामित्व एवं संग्रह का विसर्जन करने हेतु व्युत्सर्ग तप की साधना बताई गई है। इसी प्रकार पूर्वकृत अशुभकर्मों के विशेषतः मोहनीय कर्म के फलस्वरूप मानव को साधना में आनन्द नहीं
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