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________________ ४० तमसो मा ज्योतिर्गमय सुख लिप्सा । मन को आवारा लड़कों की तरह इधर-उधर भटकने और मटरगश्ती करने में मजा आता है। बंदरों की तरह डाली-डाली पर उछलते रहने और चिड़ियों की तरह जहाँ-तहाँ फुदकते रहने में उसकी चंचलता को समाधान मिलता है । वह धर्मध्यान, सामायिक, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग आदि करते समय बार-बार दूसरे विकल्प लाकर साधना में विघ्न डालता है | कल्पना के घोड़े पर सवार होकर कषाय, राग-द्व ेष-मोह, द्रोह, दम्भ, काम, मद, मत्सर आदि विकारों के मैदान में दौड़ता रहता है; नाना प्रकार की विषयेच्छाएँ करता है, आकाश-पाताल की सैर करता है । इस प्रकार भटकने में उसकी अधिकांश शक्ति नष्ट हो जाती है । इसे उधर से रोक कर आत्माभिमुख करना, स्वभावरमण या रत्नत्रय की उपयोगी साधना में केन्द्रित करने का काम प्रायः आभ्यन्तर तप करता है । मन को उपर्युक्त बाह्य विषयों से हटा कर आत्मिक क्षेत्र में लगा देने से आत्मा की प्रसुप्त शक्तियाँ जाग जाती हैं, आत्मा पर लगे हुए कर्ममल की उस उस तप से शुद्धि होने में मन सहायक बन जाता है, आत्मा में निहित क्षमताएँ प्रकाश में आ जाती हैं । आभ्यन्तर तपस्या के कारण आत्मा की यह आन्तरिक प्रगति सामान्य मानव को महामानव - महापुरुष के स्तर पर ले जाकर खड़ी कर देती है । यह सब तप द्वारा मन के भटकाव को रोकने और उसे आत्मा के लक्ष्य केन्द्र पर नियोजित कर देने का ही प्रतिफल है । चंचलता की वृत्ति के कारण मन स्थिर नहीं रहता, वह उद्विग्न, व्यग्र, काम, क्रोध, लोभ, मोह, राग-द्व ेष आदि विकारों में ग्रस्त एवं विषयों की आसक्ति में लिप्त रहता है, परन्तु आभ्यन्तर तप द्वारा मन जब चंचलता की वृत्ति से छुटकारा पाता है, तब आत्मा में एकाग्र होकर, आत्मगुणों मेंआत्मभाव में रमण करके सधा हुआ मन अनेक चामत्कारिक परिणाम उत्पन्न करता है । मन की दूसरी प्रवृत्ति है - विषय - सुखोपभोग की लिप्सा । वैषयिक सुख या पदार्थनिष्ठ काल्पनिक सुख शरीर और मन द्वारा विषय सुखों के उपभोग या काल्पनिक वस्तुनिष्ठ सुख के आस्वादन के रूप में माना जाता है । पाँचों इन्द्रियाँ एवं नो-इन्द्रिय ( मन ) इसके माध्यम बनते हैं । मधुर एवं मनोइच्छित इष्ट विषय को देखने, सूँघने, सुनने, चखने एवं छूने आदि की इन्द्रिय-विषयोपभोग लिप्सा भी इसी विलास क्षेत्र में आती हैं । स्वाद, कामभोग एवं अन्य विषय-सुख की कल्पना, लालसा एवं तृष्णा करने और साधन जुटाने के ताने-बाने बुनने में मन की अधिकांश शक्ति लगी रहती है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003091
Book TitleTamso ma Jyotirgamayo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages246
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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